अम्बर पर रहने वाली किरणें
दबे पावं धरती पर आईं हैं
ओढ ओस की झिलमिल चुनरी
उस पर कुहासे की गोट सजाईं है
फैल रही हैं कण-कण पर
उत्साहित मृदुल भोर लिए
शिथिल गात फूलों,पत्तों के
पुलकित हैं आलोकित नयन लिए
कोयल के पंचम स्वर का संगीत
स्वच्छंद मुखरित है जल थल पर
अठखेलियाँ लहरों से किरणों की, ज्यूं
हैं नृत्यमगन प्रेयसी पीह आगत पर
तिमिर ब्रह्मांड से मिटाने हेतु
दिवाकर की अनुकम्पा आईं हैं
माना है ये अभिसार अस्ताचल तक
किन्तु प्रत्येक रात्रि उपरांत भोर आईं हैं
पारुल सिंह