Thursday, November 26, 2015

"चाय"

 उन चुस्कियों की लज्ज़त कमाल थी ....
सवेरे सवेरे
हमारी बालकनी में 
ठंडी हवा 
झूमते मनी प्लांट 
झूलती बोगनवेलिया 
के इशारों पर 
जो उनके साथ ली जाती थी
सुबह की पहली l की 
उन चुस्कियों की लज्ज़त कमाल थी

जरा जरा जागे
जरा जरा नींद में वो 
ऊँघती मेरी जम्हाईयों से
लडती मेरी अँगड़ाईया 
आस पास के फ्लैट्स से घिरी
वो महफ़िल सी तन्हाईया 
दाल चीनी 
अदरख,तुलसी की महक 
साँसों में घुलती थी 
वो चाय की चुस्कियां बेमिसाल थी 

अब वो बनाए या मैं 
चाय मे वो खुश्बू ही नहीं आती 
चाय का स्वाद कसैला हो गया 
अब चाय पीयी जाती है
चुस्कियां नहीं ली जाती 
हालाकि हम तब भी चुप रह कर
चाय पीते थे, और अब भी
पर ये चाय बड़ी कमाल चीज है
इसका स्वाद दिल के
मिलने से आता है 
दिल में दरारे हों तो
इसका स्वाद भी दरक जाता है …….
                         🍀पारूल🍀

Saturday, November 14, 2015

नये हैं क्या ?

बेटी को लेकर एक बार गंगाराम हॉस्पिटल गयी थी | डाक्टर का कमरा खोजते हुए मैं गलती से पीडियाट्रिक कैंसर वार्ड में पहुँच गई | कोरीडोर के दोनों तरफ़ कमरे थे | हर कमरे में ६-८ बैड, हर बैड पर एक बच्चा | पास में एक माँ | गले में , नाक में नालियां लगे हुए बच्चे , बालों के बगैर बच्चे, नन्हें नन्हें, गोल मोल, दुबले-पतले बच्चें | बच्चों के साथ कुछ माएं भी बिना बालों के | एक दम गंजी माएं, कोई गोद में खिलाती | कोई गोद में लिए बैठी अपने बच्चे को |  ज़िद करते बच्चें हर ज़िद पर रोकती माएं | दौड़ने की ज़िद एक बच्चे के लिए कितनी छोटी होती है ये हर माँ का सपना होती है | दौड़ने की ज़िद पर रोकती माएं, रोते बच्चें | गुलगुली करती माएं, हँसते बच्चें | चूमते बच्चे निहाल होती माएं |
ये सब एक ही कमरे में नहीं था | क़दम-दर-क़दम बहुत धीरे चल रही थी मैं, पर एक भी बैड का हाल जाने बिना आगे नहीं बढ़ी | कुछ साफ़ दिख नहीं रहा था धुंधला, सफ़ेद सा था सब कुछ, आज तक भी स्मृति में ऐसा ही है | आँखों में आंसू भरे हुए थे | पर बदल दिया उस लम्हें ने मुझे, मेरी सोच को |
 कोई लम्हा अगर छू कर गुजर जाना चाहता है आपको तो छू लेने दीजिए उसे | गुजर जाने दीजिए उसे अपने जिस्म से रूह तक को छूते हुए | वो लम्हा जो अहसास देना चाहता है उसे महसूस होने दीजिए अपने जिस्म और रूह के हर रेशे को | बदल देने दीजिए उसे आपकी सोच, नज़रिए और जिंदगी को | कभी-कभी ख़ुद को ढीला एक दम हल्का छोड़ देना चाहिए ज़िंदगी के हाथों में | हवा से हल्का हो उड़ जाने के लिए, पत्ते सा सूखा हो बह जाने के लिए | ये ही वो पल होता है जो आपको आपके कुछ और नजदीक लाकर आप से मिलाता है | ये ही होता है वो लम्हा जो बहुत से पुराने सवालों का जवाब होता है | ये ही होता है वो लम्हा जो सोच के चोराहें पर खड़े रहने की पीड़ा से मुक्ति देता है | 
हम अपनी समझदारी, दुनियादारी, और लीक पर चलने के सदके ऐसे न जाने कितने पल आने,जाने देते हैं, अपनी ज़िंदगी में वरना नकारात्मकता से भरे दिल की लिए, सुबह के सैर पर काँटों में हँसते हुए एक फूल का इशारा ही काफी नहीं है क्या? पर नहीं ! हमें तो “तो क्या” कहने की आदत है |
चलिए ये ही सही | इस “तो क्या” को ही बोलना है तो बोलते हैं, बस जगह बदल लेते हैं थोड़ी सी |  
फूल काँटों में हंस रहा है तो क्या ये तो होता ही है उसे तो वैसा करना ही है, की जगह ये सोच लें ... ये नन्हा सा फूल काँटों में भी हंस रहा हैं, अपना रंग और खुश्बू भी नहीं छोड़ रहा | “तो क्या” मैं अच्छा भला इंसान जिसे भगवन ने इतनी नैमतों से नवाज़ा है | मैं क्या दर्द में मुस्कुरा नहीं सकता ? फूल की तरह काँटों में रहते हुए खुश्बू बाँटने की तरह मैं दुखी होते हुए भी ख़ुशी बाँट नहीं सकता ? 
“तो क्या” के कुछ और इस्तेमाल ...... मेरा घर छोटा है “तो क्या”, मेरा बच्चा स्पेशल है “तो क्या” ..... मुझे कोई दुःख है “तो क्या” ?
दुःख मनाने की आदत है | जिनके बच्चें नहीं हैं, वो कहते हैं कि हम दुखी हैं | जिनके हैं होकर बिगड़ गए वो कहते हैं हम सबसे बड़े दुखी हैं | जिनके होकर गुजर गए वो कहते हैं इस से बड़ा दुःख नहीं |
जिनके पास रुपया पैसा है वो दुखी, जिनके पास नहीं है वो दुखी | भाई मेरे अम्बानी से जाकर पूछो कोई न कोई परेशानी उसे भी होगी | सो दुःख नाम की कोई चीज नहीं होती, ये होता नहीं मनाया जाता है | जिन हालत पर अपना बस ही नहीं उन का दुःख क्या मनाना ?
हाँ तो उस दिन उस एक लम्हें ने बदल दिया मुझे | क्यूंकि मैंने महसूस होने दिया ख़ुद को वो सब | न वक़्त की परवाह की न सोच की | वो आंसू मेरे आख़िरी आंसू थे अपने बच्चे के स्पेशल चाइल्ड होने पर | वो बच्चें जो उस वक़्त अपनी सब से कम क्षमताओं और उर्जाओं में थे मुझे ऊर्जा दे रहे थे | वो मेरा सबल बन रहे थे | मेरी उंगली पकड़ लेकर चल दिए थे मुझे | जैसे कह रहे हों ,” आंटी चांदनी को ये तकलीफ तो नहीं झेलनी पड़ रही ना” | ,” आंटी मुझे बालों में पिन लगाने का बड़ा शौक़ है, देखो तो मेरे बाल चले गए, पर आप चांदनी को पिन लगाया करोगे ना | उसकी चोटियाँ गूंथा करोगे ना ?”
मुझे नहीं मालूम उन में से कितने बच्चें ठीक होकर घर वापस गए | मेरे लिए वो सारे ठीक होकर घर चले गए | पर जिस उम्र में हम एक इंजेक्शन तक से डरते थे, कीमोथेरेपी झेल- झेल कर अपनी उम्र से काफी आगे आ चुके वो बच्चें मेरे प्रेरणा-स्रोत हैं | हर दम मेरे साथ हैं | कभी एक-दो बार क़दम डगमगाये शुरू में तो उन्होंने मुझे उंगली पकड़ कर उसी कोरिडोर में घुमा दिया | अब तो खैर ये नौबत नहीं आती | 
अपनी ऊर्जा और प्रेरणा का स्रोत आपको ख़ुद खोजना होगा | ये बच्चे ही चाहिए तो गंगाराम जा सकते हैं | वरना तो ज़िंदगी बिखरी पड़ी है हर तरफ़ देखिये, सीखिए, उठिए और चलिए | आंसू तो रोकने होंगे अपने आख़िरी आंसू का कारण आपको ख़ुद खोजना होगा | कोई थाली में परोस कर नहीं देगा | और जब तक ख़ुद पर ये दया करोगे की कोई आये और हमे कारण दें, तब तक मिलेगा भी नहीं |
रोना बुरा नहीं है रो लो | खूब रोओ | जो जो बाते कह कर जिस जिस भगवन को जिस-जिस तरह से कोस कर रो सकते हो रो लो जी भर कर | इतना रो लो की फिर कभी आँख में आंसू न आयें | पर जिस दिन चुप हो जाओ उस दिन के बाद तुम से बहादुर कोई ना हो | 
माँ-बाप से ज्यादा बच्चे का भला कोई नहीं कर सकता, पर पहले स्वीकार कर लो कि ये हो गया हमारे बच्चे और हमारे साथ | ये ग़लत हुआ या सही इस पर बात बाद में | पर पहले मान लो कि अब हम बदली न जाने वाली एक स्थिति में हैं, जो समाज की सोच के हिसाब से दुःख है हमारे लिए नहीं | अब? अब क्या ?
जैसे कहते हैं ना कि कोई काम शुरू कर लिया तो मानिये की पचास प्रतिशत हो गया | वैसा ही यंहा भी है | आपने स्वीकार कर लिया तो आपको कोई नहीं रोक सकता अपने बच्चे के लिए अच्छे से अच्छा करने के लिए | रुकावटें तब तक ही हैं जब तक हम स्वीकार नहीं करते | सही भी तो है जब हम नहीं मानते की हमे कोई बीमारी है तो ना उसके लिए डॉक्टर खोजते ना दावा लेते | ये परिवार और समाज की शर्म हैं जो हमे ये स्वीकार करने से रोकती है | मानती हूँ जिस समाज में, जिस मानसिकता के साथ हम सालो-साल रहते आये हैं उसे रातो-रात बदलना मुश्किल है | पर ये तो ज़िंदगी के हर दुःख से जुडी सच्चाई है |
अगर घर में आग लगी है तो हम उसे छुपाते थोड़े हैं | बचाव के लिए पुकारते हैं | उस आग में हम बहुत सी चीजों से वंचित हो जाते हैं जो औरों के पास तो हैं | फिर भी हम ख़ुद को पुनः स्थापित करते हैं | ये ही यंहा भी करना है | आपको बस लोगो की सहानुभूति का पात्र बने रहना है या संभल कर ख़ुद को पुनर्स्थापित करना है, चुनाव आपका है | एक बात की गारंटी मुझ से ले लीजिये जब तक आप नहीं चाहेंगे आपके बच्चे और आप पर कोई दया नहीं दिखा सकता | हमारा व्यवहार ही लोगो का व्यवहार तय करता है | आप हौसले से भरे हैं तो लोग उल्टा आप से प्रेरित ही होंगे आप एक मिसाल बन उभरेंगे |
ये आपका एटीटूयड है अब जो जीवन भर आप और आपके बच्चे की खुशियां निर्धारित करेगा | पहली बात तो लोगो से हमे कोई दुश्मनी नहीं बांधनी है | क्या बुरा मानना उसका जो नादान है,अंजान है | कुछ वक़्त पहले तो आप भी उन में से एक ही थे | बस आप ये कर सकते हैं कि जितना हो सके जागरूकता फैलाएं एक सलीके दार व्यवहार के साथ सब सच-सच बताएं और सहज रहें, खुश रहें |
                                                               पारुल सिंह     
    
    



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parul singh

Thursday, November 5, 2015

पेशावर वाली माँ

पेशावर वाली माँ एक महीना हो गया अब चली जाओ तुम मुझे आजाद कर दो अपनी क़ैद से तुम जीती जागती भला कैसे रूह बन कर मुझ पर साया हो सकती हो? तुम भूत नहीं हो|
वो तो तुम्हारे बच्चे .....नहीं नहीं वो नाजुक नाजुक से बच्चे भूत नहीं बन गए  वो तो फ़रिश्ते हैं ।
फ़रिश्ते हैं या थे ? फ़रिश्ते होते हैं या मरने के बाद बन जाते हैं ? फ़रिश्ते होते हैं तो मर क्यूँ जाते हैं ?
नहीं वो मार दिए जाते हैं ,शैतान मार देते हैं ?
जो भी हो तुम चली जाओ मुझसे और नहीं सहा जाता तुम्हारा साथ | आजकल ठण्ड भी कितनी हैं तुम्हारे हाँ भी होगी ?
पापा का हर तीसरे दिन फ़ोन आ जाता है ।बहुत ठण्ड है आज, बच्चो को अच्छे से कपडे पहना कर रखना | पेशावर वाली माँ तुम्हारे बच्चो को भी ठण्ड लगती होगी ना । उफ़ इतनी सर्द रातो में तुम खुद से कोसो दूर सीली मिटटी में कैसे छोड़ सकती हो भला अपने बच्चो को ?अरे कैसी माँ हो तुम? हाथ और छोटी छोटी उँगलियाँ भी अकड़ गयी होगी ठण्ड में उन नाजुकबदन बालको की |अरे रहम करो उन बच्चो पर निकाल लाओ उन्हें | क्या टीस नहीं उठती सीने  में देखा ही नहीं तुमने जिगर के टुकडों को एक महीने से |  क्या छाती में कुछ कुलबुलाता नहीं जब स्कूल से वापस आते ही गले से लग कर तुम में फिर से पनाह पाने की कोशिश  याद आती है थके हारे बच्चों की ?
अरे जालिम माँ जा ले आ अपने बच्चे को बैठा दे उसे गरम कम्बल में लपेट कर और खजूर बादाम का गरम गरम दूध अपने हाथों से पिला |
जा चली जा एक तो तेरे मुझ में होने का बोझ, दूसरा तू हर वक़्त जो ये सवाल करती हैं, मैं इनके जवाब कंहा से दूँ ? जब से तू आई है मैंने दौड़ दौड़ कर बात बे बात अपनी बेटियो को गले लगाया है और जितनी बार उन्हें गले लगाती हूँ तू बांहे फैला लेती है, क्यूँ पूछती है मुझ से ?
मैं कैसे बताऊँ, क्या बताऊँ कि तू किसे बांहों में भरेगी अब, तू किस के बालो चेहरे को बोसो से ढक देगी मुझे क्या मालूम तू अब किस को छाती से चिपका कर सोएगी ?
किस की एक छोटी सी पुकार पर तू आई बेटा  कह कर रसोई से दौड़ी जाएगी ।
किस की पेंटिंग्स,प्रोजेक्ट्स देख कर तू अरे वाह शाबाश बोलेगी ।
और सुनो ये जो तुम पागलों की तरह अपलक देखती हो न, जब में नन्ही सी बेटी को उस पर अनायास उमड़ आए प्यार पर बांहों में छुपा कर 'मेरा नोना बाबू 'कहती हूँ ,ये मुझे बहुत डराता है मेरी पकड़ ढीली हो जाती है बिटिया पर |तुम से डर  कर मैं चुपचाप रसोई में जाकर बिना काम के काम निकाल लेती हूँ ।
ख़बरदार जो ये सोचा कि तुम सी होकर दिखाती हूँ तुम्हें ।नहीं नहीं मैं तुम सी नहीं
मेरे बच्चे,मेरे ज़िगर के टुकड़े साथ हैं मेरे।कोई बुरी निगाह उनका कुछ बिगड़ना क्या ऐसा सोच भी नहीं सकती ।
मैं हूँ ना ..उनकी माँ .....जब मैं हूँ,जब माँ हैं तो ,तो किसी बच्चे का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता .....ये बात सब जानते हैं मैं भी, तुम भी,दुनिया भी ।
फिर उस दिन तुमने अपने बच्चों को जाकर बचाया क्यूँ नहीं पेशावर वाली माँ ?
माँ के होते किसी को कुछ नहीं हो सकता इस विश्वास के सबसे बड़े विश्वास करने वाले बच्चे ही तो होते हैं । ओ निर्मोही जरा सोच तो उस आख़िरी वक़्त तक भी उन नन्ही जानों को भरोसा होगा के उनकी माँ बचा लेगी उन्हें ?जरा सोच तो बारूद का दर्द ज्यादा हुआ होगा ,मरने का या उस आख़िरी घड़ी पर भी जब तू बचाने नहीं पहुंची तो उनके टूटे विश्वास से टूटे दिल का ?
पता नहीं गोलियों के सितम से या तेरे न आने के सदमे में आँखे खुली की खुली रह गयी बेचारे की।
वो आख़िरी घड़ियाँ क्या क़यामत झेल चल निकले वो बहादुर शूरमा बच्चे ?
देख अब तू  और न सता, इम्तिहान आने वाले हैं बच्चो के ,अब मुझे फुरसत नहीं तू भी जा अरे अपने बच्चों का ख्याल कर, क्या कॉफ़ी नहीं देनी देर रात तक जागकर पढ़ते बच्चे को?
सुबह उनका फरमाईशी लंच बॉक्स भी बनाना होगा?
और क्या अरे आजकल बच्चों की खाने की आदते कितनी अजीब हो गयी है न मेरी बेटी को तो हर रोज कुछ नया और टेस्टी चाहिए अब हम माओं की जो हालत होती है रोज नई नई रेसिपी खोजने में क्या तेरे बच्चे को भी पास्ता और ब्रेड पिज़्ज़ा पसंद है मेरी बेटी को तो है।
बहुत उदासी होती है माहौल मे जब धूप मे मेरे पास आ बैठती है तू,और बताने लगती है किस्से अपने लाडले के, सुन वो उस दिन क्या बता रही थी तुम कि तुम्हारा बेटा कल्पना चावला को अपना आइडल मानता है वो भी नासा जाना चाहता है एस्ट्रोनाटॅ बनना चाहता है। सही है बच्चे अपना एम आजकल बहुत अच्छी तरह जानते है उनके फण्डे बडे साफ होते है जिन्दगी के बारे मे ,तू सोच वरना हमें कहाँ पता था क्या बनना है इतनी उम्र के थे जब हम। बन जाएगा, बन जाएगा ,पर.......
जानती हूँ अब कुछ नहीं होगा हर आने वाले को जाना है पर इत्ती सी उम्र मे और इस तरह जाना? ना ना पेशावर वाली माँ ऐसी मौत तो दुश्मन को भी ना आए। दुश्मन ही तो हो तुम हमारी पर यकीन कर ऐसी दुआ नहीं की थी कभी तेरे लिए ।मेरे भगवान तेरे अल्लाह की कसम ।और दुश्मन है तू तो पगली मेरे पास रोज क्यूँ आ बैठती है,क्यूँ तेरे दुख के आँसू मेरी पलकों पर आ कर जम जाते हैं । माँ हिन्दू, मुसलमान नही होती, माँ मजहब से क्या वास्ता ,वो बस अपने बच्चों की माँ होती है । कौन सा भगवान कहता है कि माँ को उसकी औलाद से ही जुदा कर दो,और अगर भगवान एक ही है तो फिर काहें का झगडा?
हमारे यहाँ भी खूब हुआ री ऐसा हमारे यहाँ क्या पूरी दुनिया मे हुआ जर्मनी,जापान,रुस मे हुआ। कुछ मिला था क्या मारने वालो को? फिर भी कुछ नही सीखा,इन्सान जानवर से तो बहुत बदतर है।
जलियांवाला बाग हुआ था तुझे याद तो होगा। उफ........
अब क्या करेगी तू, जिसकी जितनी लिखी है उतनी ही जीता है,हाँ ये तो तू सच कहती है ऐसे कोई नहीं जाता। हमारे यहाँ हर चोट का मरहम है, हमारे यहाँ अभिमन्यु भी ऐसे ही चला गया था पर उसका इलाज हमने कर लिया हमे दिल को बहलावे देने खूब आते हैं।ये कह कर कि वो किसी राक्षस की आत्मा थी,हमने दिल फुसला लिया,अभिमन्यु की  माँ सुभद्रा जब गर्भवती थी तब उसने  गलती से वो बोतल खोल ली थी जिसमे उसके भाई श्री कृष्ण ने उस आत्मा को कैद कर रखा था। और वो आत्मा गर्भस्थ शिशु अभिमन्यु के शरीर मे प्रवेश कर गई थी।
पर तुम खुद को क्या समझाओगी पेशावर वाली माँ। हम अगले जन्म की आस लगा लेते हैं तुम तो वो भी नहीं मानती । तुम खुद को कैसे सम्भालोगी। जिओगी ही कैसे अब, जब दिल की नस नस तडफेगी वो दरिंदगी याद कर के जो तेरे बच्चों पर कहर बरपा हुई तो तू खुद को कैसे माफ कर पाएगी कि तू कहाँ थी उस घडी,कि तू कुछ भी ना कर पाई अपने  नन्हें से चाँद के लिए, कि तू जिन्दा ही क्यूँ है? तू जिन्दा ही रह कर क्या करेगी पेशावर वाली माँ। इन्सानियत का तकाजा है इन्सान इन्सान के काम आए मै कुछ कर सकती तो जरूर करती तेरे नौनिहाल के लिए, जान लडा देती उसे बचाने के लिए। तू तो चली आई पर मै तो कभी तुझे बताने आ भी नही सकती कि मै तेरे गम मे अपने पति से छुप छुप कर रोज रात को रोती हूँ, कि जब तू सूजी हुई दर्द से बेहाल आँखे कुदरत  के कानून के आगे और खोले नही रह पाती और सो जाती है या बेहोस हो जाती है, क्या पता ,तो मै तुझे कम्बल उढा आती हूँ तेरे माथे पर हाथ फिरा देती हूँ, पर ये दुनिया माँ को नही समझती और माँ को दुनियादारी समझ नही आती ।तेरे गम मे शरीक हूँ पर तुझे बता  भी नहीं सकती ।
जब भी सांस आए समझना मैंने याद किया जब भी कभी बादे सबा जानी पहचानी सी लगे सोचना मैने दुआ की तेरे लिए, पर अब तू चली जा पेशावर वाली माँ मुझे अपने बच्चे पालने है,और तू तो जानती है माँ अपने बच्चो के लिए बहुत खुदगर्ज होती है वो बस अपने बच्चों के लिए सोचती है पहले। मै तेरे साथ हूँ पर तू दुश्मन देश की माँ ठहरी तेरे लिए क्यूँ रोऊं । पर है तो माँ ही री,आ गले लग जा आखिरी बार,कभी छुप कर फिर मिलेंगे अब जा चली जा पेशावर वाली माँ ।
  शामिल हूँ तेरे गम मे बहुत शर्मसार भी
लाचार हूँ खडा हूँ तमाशाईयों के साथ ।
  पारुल सिंह
बेटी को लेकर एक बार गंगाराम हॉस्पिटल गयी थी | डाक्टर का कमरा खोजते हुए मैं गलती से पीडियाट्रिक कैंसर वार्ड में पहुँच गई | कोरीडोर के दोनों तरफ़ कमरे थे | हर कमरे में ६-८ बैड, हर बैड पर एक बच्चा | पास में एक माँ | गले में , नाक में नालियां लगे हुए बच्चे , बालों के बगैर बच्चे, नन्हें नन्हें, गोल मोल, दुबले-पतले बच्चें | बच्चों के साथ कुछ माएं भी बिना बालों के | एक दम गंजी माएं, कोई गोद में खिलाती | कोई गोद में लिए बैठी अपने बच्चे को |  ज़िद करते बच्चें हर ज़िद पर रोकती माएं | दौड़ने की ज़िद एक बच्चे के लिए कितनी छोटी होती है ये हर माँ का सपना होती है | दौड़ने की ज़िद पर रोकती माएं, रोते बच्चें | गुलगुली करती माएं, हँसते बच्चें | चूमते बच्चे निहाल होती माएं |
ये सब एक ही कमरे में नहीं था | क़दम-दर-क़दम बहुत धीरे चल रही थी मैं, पर एक भी बैड का हाल जाने बिना आगे नहीं बढ़ी | कुछ साफ़ दिख नहीं रहा था धुंधला, सफ़ेद सा था सब कुछ, आज तक भी स्मृति में ऐसा ही है | आँखों में आंसू भरे हुए थे | पर बदल दिया उस लम्हें ने मुझे, मेरी सोच को |
 कोई लम्हा अगर छू कर गुजर जाना चाहता है आपको तो छू लेने दीजिए उसे | गुजर जाने दीजिए उसे अपने जिस्म से रूह तक को छूते हुए | वो लम्हा जो अहसास देना चाहता है उसे महसूस होने दीजिए अपने जिस्म और रूह के हर रेशे को | बदल देने दीजिए उसे आपकी सोच, नज़रिए और जिंदगी को | कभी-कभी ख़ुद को ढीला एक दम हल्का छोड़ देना चाहिए ज़िंदगी के हाथों में | हवा से हल्का हो उड़ जाने के लिए, पत्ते सा सूखा हो बह जाने के लिए | ये ही वो पल होता है जो आपको आपके कुछ और नजदीक लाकर आप से मिलाता है | ये ही होता है वो लम्हा जो बहुत से पुराने सवालों का जवाब होता है | ये ही होता है वो लम्हा जो सोच के चोराहें पर खड़े रहने की पीड़ा से मुक्ति देता है |
हम अपनी समझदारी, दुनियादारी, और लीक पर चलने के सदके ऐसे न जाने कितने पल आने,जाने देते हैं, अपनी ज़िंदगी में वरना नकारात्मकता से भरे दिल की लिए, सुबह के सैर पर काँटों में हँसते हुए एक फूल का इशारा ही काफी नहीं है क्या? पर नहीं ! हमें तो “तो क्या” कहने की आदत है |
चलिए ये ही सही | इस “तो क्या” को ही बोलना है तो बोलते हैं, बस जगह बदल लेते हैं थोड़ी सी |  
फूल काँटों में हंस रहा है तो क्या ये तो होता ही है उसे तो वैसा करना ही है, की जगह ये सोच लें ... ये नन्हा सा फूल काँटों में भी हंस रहा हैं, अपना रंग और खुश्बू भी नहीं छोड़ रहा | “तो क्या” मैं अच्छा भला इंसान जिसे भगवन ने इतनी नैमतों से नवाज़ा है | मैं क्या दर्द में मुस्कुरा नहीं सकता ? फूल की तरह काँटों में रहते हुए खुश्बू बाँटने की तरह मैं दुखी होते हुए भी ख़ुशी बाँट नहीं सकता ?
“तो क्या” के कुछ और इस्तेमाल ...... मेरा घर छोटा है “तो क्या”, मेरा बच्चा स्पेशल है “तो क्या” ..... मुझे कोई दुःख है “तो क्या” ?
दुःख मनाने की आदत है | जिनके बच्चें नहीं हैं, वो कहते हैं कि हम दुखी हैं | जिनके हैं होकर बिगड़ गए वो कहते हैं हम सबसे बड़े दुखी हैं | जिनके होकर गुजर गए वो कहते हैं इस से बड़ा दुःख नहीं |
जिनके पास रुपया पैसा है वो दुखी, जिनके पास नहीं है वो दुखी | भाई मेरे अम्बानी से जाकर पूछो कोई न कोई परेशानी उसे भी होगी | सो दुःख नाम की कोई चीज नहीं होती, ये होता नहीं मनाया जाता है | जिन हालत पर अपना बस ही नहीं उन का दुःख क्या मनाना ?
हाँ तो उस दिन उस एक लम्हें ने बदल दिया मुझे | क्यूंकि मैंने महसूस होने दिया ख़ुद को वो सब | न वक़्त की परवाह की न सोच की | वो आंसू मेरे आख़िरी आंसू थे अपने बच्चे के स्पेशल चाइल्ड होने पर | वो बच्चें जो उस वक़्त अपनी सब से कम क्षमताओं और उर्जाओं में थे मुझे ऊर्जा दे रहे थे | वो मेरा सबल बन रहे थे | मेरी उंगली पकड़ लेकर चल दिए थे मुझे | जैसे कह रहे हों ,” आंटी चांदनी को ये तकलीफ तो नहीं झेलनी पड़ रही ना” | ,” आंटी मुझे बालों में पिन लगाने का बड़ा शौक़ है, देखो तो मेरे बाल चले गए, पर आप चांदनी को पिन लगाया करोगे ना | उसकी चोटियाँ गूंथा करोगे ना ?”
मुझे नहीं मालूम उन में से कितने बच्चें ठीक होकर घर वापस गए | मेरे लिए वो सारे ठीक होकर घर चले गए | पर जिस उम्र में हम एक इंजेक्शन तक से डरते थे, कीमोथेरेपी झेल- झेल कर अपनी उम्र से काफी आगे आ चुके वो बच्चें मेरे प्रेरणा-स्रोत हैं | हर दम मेरे साथ हैं | कभी एक-दो बार क़दम डगमगाये शुरू में तो उन्होंने मुझे उंगली पकड़ कर उसी कोरिडोर में घुमा दिया | अब तो खैर ये नौबत नहीं आती |
अपनी ऊर्जा और प्रेरणा का स्रोत आपको ख़ुद खोजना होगा | ये बच्चे ही चाहिए तो गंगाराम जा सकते हैं | वरना तो ज़िंदगी बिखरी पड़ी है हर तरफ़ देखिये, सीखिए, उठिए और चलिए | आंसू तो रोकने होंगे अपने आख़िरी आंसू का कारण आपको ख़ुद खोजना होगा | कोई थाली में परोस कर नहीं देगा | और जब तक ख़ुद पर ये दया करोगे की कोई आये और हमे कारण दें, तब तक मिलेगा भी नहीं |
रोना बुरा नहीं है रो लो | खूब रोओ | जो जो बाते कह कर जिस जिस भगवन को जिस-जिस तरह से कोस कर रो सकते हो रो लो जी भर कर | इतना रो लो की फिर कभी आँख में आंसू न आयें | पर जिस दिन चुप हो जाओ उस दिन के बाद तुम से बहादुर कोई ना हो |
माँ-बाप से ज्यादा बच्चे का भला कोई नहीं कर सकता, पर पहले स्वीकार कर लो कि ये हो गया हमारे बच्चे और हमारे साथ | ये ग़लत हुआ या सही इस पर बात बाद में | पर पहले मान लो कि अब हम बदली न जाने वाली एक स्थिति में हैं, जो समाज की सोच के हिसाब से दुःख है हमारे लिए नहीं | अब? अब क्या ?
जैसे कहते हैं ना कि कोई काम शुरू कर लिया तो मानिये की पचास प्रतिशत हो गया | वैसा ही यंहा भी है | आपने स्वीकार कर लिया तो आपको कोई नहीं रोक सकता अपने बच्चे के लिए अच्छे से अच्छा करने के लिए | रुकावटें तब तक ही हैं जब तक हम स्वीकार नहीं करते | सही भी तो है जब हम नहीं मानते की हमे कोई बीमारी है तो ना उसके लिए डॉक्टर खोजते ना दावा लेते | ये परिवार और समाज की शर्म हैं जो हमे ये स्वीकार करने से रोकती है | मानती हूँ जिस समाज में, जिस मानसिकता के साथ हम सालो-साल रहते आये हैं उसे रातो-रात बदलना मुश्किल है | पर ये तो ज़िंदगी के हर दुःख से जुडी सच्चाई है |
अगर घर में आग लगी है तो हम उसे छुपाते थोड़े हैं | बचाव के लिए पुकारते हैं | उस आग में हम बहुत सी चीजों से वंचित हो जाते हैं जो औरों के पास तो हैं | फिर भी हम ख़ुद को पुनः स्थापित करते हैं | ये ही यंहा भी करना है | आपको बस लोगो की सहानुभूति का पात्र बने रहना है या संभल कर ख़ुद को पुनर्स्थापित करना है, चुनाव आपका है | एक बात की गारंटी मुझ से ले लीजिये जब तक आप नहीं चाहेंगे आपके बच्चे और आप पर कोई दया नहीं दिखा सकता | हमारा व्यवहार ही लोगो का व्यवहार तय करता है | आप हौसले से भरे हैं तो लोग उल्टा आप से प्रेरित ही होंगे आप एक मिसाल बन उभरेंगे |
ये आपका एटीटूयड है अब जो जीवन भर आप और आपके बच्चे की खुशियां निर्धारित करेगा | पहली बात तो लोगो से हमे कोई दुश्मनी नहीं बांधनी है | क्या बुरा मानना उसका जो नादान है,अंजान है | कुछ वक़्त पहले तो आप भी उन में से एक ही थे | बस आप ये कर सकते हैं कि जितना हो सके जागरूकता फैलाएं एक सलीके दार व्यवहार के साथ सब सच-सच बताएं और सहज रहें, खुश रहें |
                                                                पारुल सिंह     

Tuesday, February 3, 2015

तेरी हार में मेरी हार है यही सोच ले तो न जंग हो

 इंसान प्रकृति के दूसरे जीवों से यूँ तो बहुत से कारणों से अलग है| पर सबसे महत्वपूर्ण कारणों में एक कारण भूख भी है|
तरह तरह की भूख हैं जो इंसान का इंसान होना निर्धारित करती हैं |


इन्ही में से कुछ भूख हैं -- गीत,संगीत और साहित्य की भूख | कम या ज्यादा हो सकती हैं पर ये भूख इंसानी गुण हैं | किसी के लिए सिर्फ़ पेट भरना, और किसी के लिए स्वाद महत्वपूर्ण होता है |

कभी कभी हद से ज्यादा भूखे बावरे कहलाये जाते हैं | कभी बहुत कम खाने वाले असंवेदनशील |
इनमें से कौन सही है कौन ग़लत ये तो लम्बी बहस का विषय है | क्यूंकि दोनों ही प्रकृति प्रदत्त प्रकृति के कारण अवश है |

गीत संगीत व साहित्य की  भूख निवारण हेतु किये गए प्रयासों के परिणाम स्वरुप ही कविसम्मेलन, मुशायरे, गीत संध्या आदि कि उत्पत्ति होती है | इसी कड़ी के एक छोटे रूप नशिस्त का आयोजन कुछ प्रेमी और उत्साहित मित्रों के सहयोग से मेरे निवास स्थान पर बसंत पंचमी के शुभ अवसर पर 24 जनवरी 2015 को किया गया | 
                                                      
तय ये था कि सुबह सरस्वती पूजा होगी | और शाम को एक नशिस्त | जिसका स्वरुप अपनी सुविधानुसार ये बनाया गया की सब अपने अपने रूप में माँ सरस्वती को काव्यांजलि अर्पित करेंगे जो थोड़ा बहुत कुछ लिख लेते हैं वो अपना लिखा पढेंगे | और जो दोस्त  ये ज़ेहमत नहीं उठाते वो दोस्त अपनी पसंद का कोई भी गीत संगीत गज़ल सुना सकते हैं | 
                                                           
इस नशिस्त में चार चाँद लगाने के लिए अपनी पुस्तक " मैंने आवाज़ को देखा है " के लिए भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार से सम्मानित सुप्रसिद्ध लेखिका श्रीमती विजय लक्ष्मी सिन्हा जी अपनी स्वीकृति दे चुकी थी | जो हमारे लिए उत्साहवर्धक था | 
                                                            
अपनी सोसायटी के मित्रों तक ही सीमित इस नशिस्त का अहोभाग्य ही था कि गुरुवर नीरज गोस्वामी जी इत्तेफाक़न दिल्ली आए हुए थे |और उन्ही से भेंट करने शामली से पहुँचे डॉक्टर र्य मलिक के सहयोग से श्री नीरज गोस्वामी जी के इस नशिस्त में आने का सुखद सुयोग बना |                          

तथा इसी बहाने हमे श्री नीरज गोस्वामी जी के साथ साथ उनके शिष्य डॉक्टर र्य मलिक जी को भी सुनने का सुनहरा मौका मिला |
नशिस्त पूर्व निर्धारित समयानुसार लगभग शाम साढ़े सात बजे श्रीमती सुमित्रा शर्मा जी के सुगढ़ संचालन में आरम्भ हुई |
                                         
 सबसे पहले श्रीमती मुदिता जी ने की बोर्ड पर हिंदी फिल्मों के गीत " किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार,किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार जीना इसी का नाम है " की धुन बजा कर पूरे माहौल को संगीतमय बना दिया | उनकी खूबसूरत प्रस्तुति ने श्रोताओं को आन्दित कर दिया | तत्पश्चात श्रीमती रीता तोमर जी की हास्य कविता ने सभी को हँसने पर मजबूर किया | 
                                              
डॉक्टर प्रियंका जैन की कविता "मैं स्वार्थी हू..." ने दो सखियों के मध्य होने वाले परस्पर सहयोग और प्रेम का भावपूर्ण चित्रण कर श्रोताओं की पलकों को गीला कर दिया |
श्री कमल शर्मा जी ने निदा फ़ाजली जी के शेरों को समय समय पर पढ़ सभी को आनन्दित किया और मंगल नसीम जी की गज़ल
                           "हंस के मिलते है भले दिल में चुभन रखते हैं , 
                           हमसे कुछ लोग मोहब्बत का चलन रखते हैं " 
 सुना श्रोताओं का  भरपूर मनोरंजन किया | इसी गज़ल के शेर 
                         "ठीक हो जाओगे कहते हुए मुंह फेर लिया
                           हाय क्या खूब वो बीमार का मन रखते हैं" 
 ने भी सभी का ध्यान आकृष्ट किया |
                                              
डॉक्टर सुधीर त्यागी जी ने अपनी कथानक विधा में लिखी गयी कविता "अली और कली" सुना कर सबको चौंकाया | बहुत ही सुन्दर शब्द शिल्प में लिखी गयी ये कविता सभी की प्रशंसा की पात्रा बनी |
डॉक्टर सुधीर त्यागी जी की ही बेटियों पर लिखी कविता ने सभी को भावुक कर दिया | पारुल सिंह ने अपनी मार्मिक कहानी "पेशावर वाली माँ " सुनाई तो माहौल और बोझिल हो गया |
तब श्री ब्रजवीर सिंह जी के  चुटकलों ने माहौल को हल्की हास्य की  बौछारों से भिगों दिया | उन्हें सुन सहज ही अहसास हो रहा था की जीवन में हास्य का भी अपना महत्वपूर्ण स्थान है |
डॉक्टर शोर्य मलिक जी की गज़ल
                               "कितनी सुन्दर जोड़ी होती 
                                 मैं तेरा तू मेरी होती " 
ने श्रोताओं को खुद से बाखूबी जोड़ लिया व खूब दाद पायी | इसी गज़ल के शेर 
                                "काटे नफरत और बुराई 
                                  काश कंही वो आरी होती " 
ने खूब दाद पायी | उन्ही कि छोटी बहर की एक और गज़ल ने भी खूब दाद पायी |
                                  शोर मचा है,शोर मचा है 
                                  लगता है वो आन खड़ा है 
                                  धीरे धीरे हौले हौले
                                  इश्क़ मेरा परवान चढ़ा है  
                                  लपटें ये जो फ़ैल रही हैं 
                                   कुछ तो मेरे यार हुआ है 
                                              

डॉक्टर शौर्य मलिक के लिए ये अवसर विशेष बन पड़ा था | अपने गुरु के सामने पहली बार प्रस्तुति देना जंहा उन्हें पहले थोड़ा सा नर्वस कर रहा था,वंही गुरु का प्रोत्साहन पाकर वो एक के बाद एक शेर पर खूब दाद बटोर रहे थे |
 श्रीमती सुमित्रा शर्मा जी ने  अपनी गज़ल
                            "स्वेद-मोती की फ़सल सी दूब थी सोयी हुई
                              मोगरे के फूल पर थी चाँदनी सोयी हुई 
                              द्रोपदी का चीर खिंचता ही रहा,खिंचता रहा 
                              गूंगा बहरा ज्ञान था और नीति भी सोयी हुई 
प्रस्तुत की और हर शेर पर ख़ूब दाद बटोरी | इसी गज़ल के शेर 
                               "इन अंधेरो को झटक कर उठ खड़ी होगी ज़रूर 
                                है तमस की  क़ैद में जो तीरगी सोयी हुई "
पर उन्होंने खूब वाहवाही पायी |
                                              
 श्रीमती विजय लक्ष्मी सिन्हा जी ने अपनी दो लघुकथाएं  "रीता और रवि " तथा
 "मज़ाक " सुनाई ,"रीता और रवि" में जहाँ लड़के लड़की के भेद पर कटाक्ष था वंही "मज़ाक" कहानी इंगित कर रही थी कि  खेल खेल में कही गयी झूठी बात कैसे आप को ही मज़ाक का पात्र बना सकती है | 
उन्होंने अपने सरल तथा मधुर  पाठन से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया | श्री सुनोद तोमर जी ने अपने निराले अंदाज में कविताएँ पढ़ी। उनके खास तरीके से कविता पर्चियों पर लिख कर लाने के अंदाज ने सभी को खूब गुदगुदाया 
                                                 
श्री अनुज जैन जी ने मजबूर फ़िल्म के गीत " आदमी जो कहता है आदमी जो सुनता है जिंदगी भर वो सदायें पीछा करती हैं " को सुना सभी का भरपूर मनोरंजन किया और वाहवाही पायी |
सभी का कहना था की इस गीत के इतने सुन्दर बोल उन्हें आज ही बहुत अच्छे से समझ आए|
                                            
और फ़िर जैसे ही श्री नीरज गोस्वामी जी ने गज़ल पढना शुरू किया | पहली गज़ल .......
                     "नया गीत हो नया साज हो नया जोश और उमंग हो ,
                       नए साल में नए गुल खिले नई हो महक नया रंग हो
                       वही रंजिशे वही दुश्मनी हैं मिला ही क्या हमे जीत के ,
                       तेरी हार में मेरी हार है यही सोच ले तो न जंग हो
                       है जो मस्त अपने ही हाल में कोई फ़िक्र कल की ना हो जिसे 
                       उसे रास आती है जिंदगी जो कबीर जैसा मलंग हो "......
 को तरन्नुम में सुनते ही हर कोई आनन्दित हो गया | अगली गज़ल 
                      "बात सचमुच में निराली हो गयी
                       अब नसीहत यार गाली हो गयी"   
                                                  
गज़ल ने खूब वाहवाही पायी हर शेर पर श्रोता झूम रहे थे| इसी गज़ल के शेर
                         "ये असर इस दौर का हम  पर हुआ ,
                          भावना दिल की मवाली हो गयी" 
                          क़ैद का इतना मज़ा मत लीजिए , 
                          रो पड़ेंगे गर बहाली हो गयी" 
एक के बाद एक गज़ल तरन्नुम में सुन श्रोता अब तक पूरी तरह झूमने लगे थे |  पूरा माहौल नीरज जी की  खूबसुरत गजलों और मधुर आवाज़ के तिलिस्म में था | 
 ऐसे में डॉक्टर प्रियंका जैन का नीरज गोस्वामी जी को गीतकार शैलेन्द्र , और गायक मौहम्मद रफ़ी का सुन्दर संगम कहना युक्तिसंगत ही था |  नीरज जी ने सभी के अनुरोध पर अपनी बम्बईया शैली में 
लिखी गयी दो गजलें 
                          "बेजा क्यूँ शर्माने का अपना हक़ जतलाने का..."
                           "बेमतलब इन्सान भिडू होता है हल्कान भिडू..."  
 प्रस्तुत कर सभी का मान भी रखा और ख़ूब मनोरंजन भी किया |  इन्ही गजलों  के एक और शेर ने श्रोताओं की ख़ूब दाद पायी |
                            " देश नहीं जिसको प्यारा
                               उसका गेम बजाने का " |
                                                

 हाल बिल्ली के भागो छिका फूटा सा था |  आज बिल्ली पेट भर खाने के मूड में थी फिर छिकें बेचारे का जो हो सो हो | 
नीरज जी बेशक़ अपनी सह्रदयता का परिचय दे रहे थे | लेकिन फरमाईशे थमने का नाम नहीं ले रही थी | होली पर नीरज जी ने अपनी गज़ल 
                        "करे जब पांव खुद नर्तन,समझ लेना कि होली हैं  " 
                          हिलोरे ले रहा हो मन समझ लेना कि होली है 
                          कभी खोलो अचानक आप अपने घर का दरवाज़ा
                          खड़े देहरी पे हो साजन समझ लेना की होली है  
                                                      
अब तक श्रोता नर्तन करने के मूड में आ चुके थे हर शेर के हर मिशरे के साथ वाह वाह कर श्रोता साथ साथ गा रहे थे " समझ लेना कि होली है ...." कोई उठने को तैयार नहीं था  हास्य प्रमुख गज़ल के साथ नीरज जी ने वायदा लिया सभी से कि ये आख़िरी हैं और जैसा की  वो कहते हैं लास्ट बट दा  नॉट लीस्ट इस गज़ल ने भी समाँ  बांध दिया |  
                           "पिलायी भांग होली में, वो प्याले याद आते हैं , 
                             गटर ,पी कर गिरे जिनमें, निराले याद आते हैं 
                             भगा लाया तिरे घर से बनाने को तुझे बीवी
                             पड़े थे अक्ल पर मेरी, वो ताले याद आते हैं "
 को सुन श्रोता हँस हँस कर बेहाल हुए जा रहे थे | 
                                           
 
दुनियादारी, प्रेम से लेकर हास्य तक की सैर नीरज गोस्वामी जी के साथ कर अब नशिस्त अपने अंतिम पड़ाव पर आ चुकी थी|

 श्री ब्रजवीर सिंह जी ने नशिस्त की शोभा बढ़ाने के लिए श्री नीरज गोस्वामी जी ,श्रीमति विजय लक्ष्मी सिन्हा जी , श्रीमति रितु सिन्हा जी ,डॉ सुधीर त्यागी जी ,श्री कमल शर्मा जी ,डॉ अशोक आनंद जी ,श्रीमती परवीन शर्मा जी ,श्रीमति मुदिता आनंद जी श्री सुनोद तोमर जी ,श्रीमति रीता तोमर जी , श्री रवि जी को धन्यवाद दिया |
                                               
साथ ही उन्होंने इस कार्यक्रम के लिए अथक प्रयास व सहयोग करने के लिए श्री पी डी गुप्ता जी, श्रीमति सुमित्रा शर्मा जी, श्री अनुज जैन जी और डॉ प्रियंका जैन जी का शुक्रिया अदा किया | रात्रिभोज पर गपशप के बाद सभी ने जल्द ही फिर किसी ऐसे ही कार्यक्रम का आयोजन करने के वादे के साथ विदाई ली |  
                                                                                                                                पारुल सिंह