Tuesday, April 5, 2016

इतना रहे ख्याल .....


स्त्री विमर्श दो स्तरों पर सामने आता है। एक सामाजिक स्तर पर व दूसरा पारिवारिक स्तर पर । दोनों ही स्तरों पर अपनी-अपनी तरह से काफी आंदोलन हुए हैं तथा चल रहे हैं । सामाजिक स्तर पर जंहा स्त्री के राजनैतिक,व्यवसायिक व समाज से जुड़ें हक़ों के मुद्दे हैं। तो पारिवारिक स्तर पर घर में उसका स्थान व् उसके साथ किया जा रहा व्यवहार महत्वपूर्ण है। अगर हम पारिवारिक स्तर पर बात करें तो आखिर इस पूरे प्रकरण में अपने हक़ों तथा किसी भी प्रकार के दुर्व्यवहार के लिए भय या असुरक्षा हमें पुरुष के ही किसी रूप से है। 

यह एक मूक व सतत आंदोलन भी रहा है । हमारे पास आज बहुत सारे अधिकार हैं । जो हमें पिछली आंदोलनरत पीढ़ियों की मुखरता ने प्रदान किये हैं। ये रातों रात होने वाला परिवर्तन नहीं है । हम आज अपनी आवाज़ मुखर करते हैं तो हमें सकारात्मक परिवर्तन मिलने में समय लगेगा । हम उसका फायदा कम या बिलकुल न उठा पाएं ऐसा हो सकता है किन्तु आने वाली पीढ़ियां उस परिवर्तन से जरूर लाभान्वित होती हैं। 
ये सही है की हर नयी पीढ़ी के लिए आज़ादी के मायने बदल जाते हैं। पर ये भी सही है कि अपनी हद और जद अब हमें खुद ही निर्धारित करनी होंगी । अपने अधिकारों का उपभोग करते हुए अब हमे थोड़ी चतुरता से काम लेना होगा। 

किसी भी समाज में आने वाला परिवर्तन उसके प्राणियों की सोच पर निर्भर करता है और उनकी सोच को प्रभावित करने वाले दो कारक धर्म व दर्शन हैं ।  धर्म व् दर्शन को बदलना तो संभव नहीं पर धर्म व् दर्शन की शिक्षा को देशकाल व आज की आवश्यकता अनुरुप ग्रहण करने का, समझने का, परिवर्तन यदि आ जाये तो काफी हद तक स्त्री के प्रति समाज व परिवार के नजरिये को बदला जा सकता है। 

ये हम महिलाओं पर भी निर्भर करता है कि हम जो हमे मिला है उसका सदुपयोग करें और जो चाहिये उसके लिए सजग रहें । ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक ऐसा समाज रच सकें जिसकी सोच प्रारंभिक स्तर से ही भिन्न हो । 

यह परिवर्तन परिवार के स्तर से शुरू कर दिया जाये तो आशा की जा सकती है कि फल सकारात्मक होगा । हमारे यंहा परिवार के पालन-पोषण की जिम्मेदारी माँ पर होती है । यदि हर माँ अपने बच्चे को शुरू से ही स्त्रिओं का आदर करना सिखाए व परिवार के बच्चों के बीच किसी भी तरह का भेदभाव न करे तथा न उसे बढ़ावा दे तो निश्चय ही आने वाली पीढ़ी एक जागरुक व समानता के हामी नागरिकों की स्वतः ही होगी । 

ये चतुराई हम महिलाओं को ही अब करनी होगी । अपने परिवार में तो हम इसके सकारात्मक परिवर्तन पाएंगे ही अपितु समाज पर भी इसका अच्छा प्रभाव पड़ेगा |
ये सही है कि ये कहना जितना आसान है करना उतना सरल नहीं है क्योंकि एक स्त्री पर एक तो बहुत सारे सामाजिक दबाव होते हैं, सदियों से चली आ रही रूढ़िवादी परम्पराएं भी हैं। जो उसे खुद को खुद की बनाई बेड़ियों में जकड़ने का काम करती हैं । जिससे कंई  बार वह स्वयं अपनी ही जाति के विरुद्ध होती है । 

किन्तु फिर भी ये प्रयास धीरे-धीरे ही सही कम-कम ही सही एक बड़ा परिवर्तन लान में सफल होगा । घड़ा बूंद-बूंद से ही भरता है। 
स्त्री को अब जरुरत अपने हक़ों को चिल्ला कर मांगने की ही नहीं उसे खुद के स्तर पर परिवर्तन लाने की भी है। न तो यह वक़्त अपने हक़ों के लिए सजग ना रहने का है ना सिर्फ़ और सिर्फ़ चिल्लाने का । 
हमे अपनी निरंतरता और तटस्थता कायम रखनी है, ये नहीं कि किसी भी पारिवारिक बहस के दौरान हमें सारा स्त्री-विमर्श याद आ जाये और दूसरे ही पल हम अपनी इच्छा से त्याग की मूर्ति,पाँव की जुती बन स्वयं को कृतार्थ मानें । मौके हम स्वयं भी  देते हैं । गलत को गलत हर हाल में कहना ही होगा। उसे प्यार या फ़र्ज़ का नाम देकर सही सिद्ध करने की आदत हमें भी छोड़नी होगी । 
                                                                                                                                                                               पारुल सिंह  
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parul singh

Tuesday, February 16, 2016

किताब "101 किताबें गजलों की " लेखक : नीरज गोस्वामी


अभी कुछ दिनों पहले रेख्ता के प्रोग्राम जश्न ए रेख्ता में जावेद अख्तर जी को उर्दू,लेखन,ग़ज़ल आदि पर विस्तार से सुनने का मौका मिला। उन्होंने एक बात बहुत अच्छी कही कि अपना एक शेर कहने से पहले आपको ज्यादा नहीं तो कम से कम पांच सौं शेर तो औरों के याद हों।

शायरी ही क्यूँ ये बात लेखन की हर विधा पर लागू होती है। किताबें आपकी सोच को नये आयाम देती हैं आपके दृष्टिकोण के दायरे को बढ़ाती हैं। शायरी पढ़ने और लिखने वालों के लिए "101 किताबें गजलों की" ऐसी ही एक किताब है।

सुविख्यात शायर नीरज गोस्वामी जी की लिखी इस किताब में उन्होंने नए व पुराने 101 शायरों की किताबों को सम्मलित किया है । इन किताबों व इन के शायरों पर नीरज जी ने खुल कर चर्चा की है।

इस किताब में एक जगह नीरज जी लिखते हैं,"किताबें हमें हमेशा कुछ न कुछ देती हैं बिना बदले में हम से कुछ भी लिए ..... इसलिए मैं हमेशा आग्रह करता हूँ के अपनी दुनिया में किताबों को जगह दो। 

जिनको आपने अब तक जगह दे रखी है उन्हे वंही रहने दो लेकिन किताबों के लिए भी थोड़ी सी जगह बना लो। आज माना आप बहुत व्यस्त हैं आपके ढेर मित्र हैं,नाते, रिश्तेदार है, ज़िम्मेदारियाँ हैं , सामने बड़े बड़े टार्गेट हैं, पैसा कमाने की होड़ है लेकिन ये स्थिति हमेशा नही रहेगी।

 एक दिन आप तन्हा होंगे एक दम तन्हा..... इतने तन्हा के सन्नाटा बोला करेगा और आप उसे सुन कर डरेंगे तब आपको किताबें सहारा देंगी। सन्नाटों को संगीत के सातों सुरों से भर देंगी। सूखे पेड़ों पर हरी पत्तियाँ ले आएगी । उन पर फिर से फूल खिला देंगी।"

खास बात ये है कि इस किताब में जिन शायरों की किताबों का जिक़्र किया गया है उन में से ज्यादातर बहुत प्रसिद्द नाम नहीं हैं । पर इस से उनकी शायरी को कमतर ना आँका जाये । बल्कि सभी शायरों की शायरी हैरान करने वाली है,पढ़ कर अहसास होता है कि साहित्य सेवा करने वाले बहुत से लोग इस बात की चिंता नहीं करते कि उनका नाम हो रहा है अथवा नहीं । वो तो बस पूरी निष्ठा से कर्त्तव्य पथ पर अग्रसर रहते हैं और कुछ के लिये ये स्वात सु:खाय है तो भी उनकी शायरी स्वयं बताती है कि वे किस पाए के शायर हैं। 

इस किताब में नीरज जी कहते हैं कि,"दोस्तों देश में न जाने कितने शायर हैं और न जाने शायरी की कितनी किताबें छपती हैं । हमें सिर्फ उन्ही किताबों का पता चल पाता है जिन्हें नामचीन प्रकाशक छापते हैं या फिर जिनकी चर्चा अख़बार या मैगजीन में होती है । बहुत कम ऐसा होता है कि आपको एक अपरिचित प्रकाशक की कोई ऐसी किताब मिले जिसमें चौंका देने वाले शेरो की भरमार हो और जिसे लिखा भी किसी नामवर शायर ने ना हो । मेरा नाम आप ऐसे ही खुशकिस्मत पाठकों में आप दर्ज़ कर सकते हैं जिसके पास शायरी की एक ऐसी ही अनूठी किताब है। "

एक और जगह नीरज जी कहते हैं कि "मुझे अनजान शायरों को पढ़ने में पड़ा मज़ा आता है क्यूंकि आप नहीं जानते कि कैसे हैं, कैसा लिखते है,क्या सोचते हैं याने आपके मन में उनकी कोई पूर्व छवि बनी नहीं होती । आप उन्हें निष्पक्ष होकर पढ़ते हैं इसी में मज़ा आता है ।"
"101 किताबें गजलों की" में लेखक ने संकलित किताबों के शायरों के साहित्यिक व व्यक्तिगत जीवन के विषय में भी ऱोचक जानकारियाँ दी हैं । 
ये किताब आपको ख़ोज,रूपये व पढ़ने में लगने वाले समय जैसे जोखिमों से बचाते हुए ऐसी किताबों से रूबरू होने का अवसर प्रदान कराती है जिन्हें आप बार बार पढ़ना चाहेंगे । 

आप अपनी पसंद की किताबें छांट कर मँगवा सकते हैं । किताबो के प्रकाशकों व ज्यादातर शायरों के फ़ोन नंबर व पते की जानकारी व किताब प्राप्ति के तरीक़े भी नीरज जी ने अपनी इस किताब में दिए हैं । आप किताब के बारे में पढ़ कर शायर स्वयं को दाद देना चाहें तो फ़ोन कर दे सकते हैं । 

शायरी प्रेमियों के पास शायरी से सम्बंधित ये क़िताब आवश्यक व संग्रहणीय है । इसमें शायरी पर  किताबों के शायरों के निजी विचार, किताबों की भूमिका में उल्लेखित गुणीजनों के उद्गार व नीरज जी के निजी विचार भी आपको पढ़ने को मिलते हैं ।  101 किताबें गजलों की के प्रकाशक शिवना प्रकाशन सिहोर मध्य प्रदेश हैं । 
"101 किताबें गजलों की" को प्राप्त करने के निम्नलिखित तरीक़े हैं......  

1. आप नीरज जी को उनके मोबाइल नंबर 9860211911 पर फ़ोन कर उन से किताब भेजने का आग्रह कर सकते हैं ।  ऐसा आप उन्हें उनके ई -मेल आई डी  neeraj1950@gmail.com पर मेल कर भी कर सकते हैं । आप फेसबुक पर भी नीरज जी से संपर्क कर सकते हैं -- https://www.facebook.com/neeraj.goswamy.16

2 शिवना प्रकाशन से फेसबुक फ़ोन व डाक पर संपर्क कर भी यह किताब मंगवायी जा सकती है । 

  शिवना प्रकाशन 
                   पी. सी. लैब, सम्राट कॉम्प्लेक्स बेसमेंट 
                    बस स्टैंड , सीहोर - 466001 (म. प्र.)
                     फ़ोन : 07562 - 405545, 0762 - 695918 
                     E-mail: shivna.prakashan@gmail.com 

https://www.facebook.com/shivna.prakashan?pnref=friends.search

3  शिवना प्रकाशन से प्रकाशित नीरज गोस्‍वामी की पुस्‍तक चर्चा पर विशेष पुस्‍तक 101 किताबें ग़ज़लों की अब दो अन्‍य प्रमुख ऑनलाइन स्‍टोर्स पर भी उपलब्‍ध है। 
https://paytm.com/…/101-kitaben-ghazlon-ki-9789381520277_11…
http://www.flipkart.com/item/9789381520277

                                                                                                               पारुल सिंह 

Thursday, January 21, 2016

अकाल में उत्सव : अद्वितीय कृति



मैं कोई आलोचक या समीक्षक कतई नहीं हूँ। ना ही इन दोनों के लिए स्वयं को समर्थ मानती हूँ ।
 किन्तु तीन चार दिन पहले पंकज सुबीर जी का उपन्यास "अकाल  में उत्सव " पढ़ा तो, ह्रदय को झंकझोर गया। अभी तक दो बार पढ़ चुकी हूँ । 
 कोशिश करने पर भी उसके पात्र उतर नहीं रहे दिलो-दिमाग़ से । अतः केवल एक पाठक के तौर उपन्यास पढ़ने के अपने अनुभव लिख रही हूँ । 
 हिंदुस्तान में छोटे किसान की दयनीय स्थिति व प्रशासनिक व्यवस्था के झोल तथा भ्र्ष्टाचार पर उपन्यास खुल कर रोशनी डालता है । 
पर कथा शिल्प के दायरे में रहते हुए। कंही भी भाषा ना तो बहुत ज्यादा वर्णात्मक होती है ना बोझिल । दो भिन्न परिवेशों पर चलती कहानी जो आपस में जुडी हुई भी है, कंही भी नीरस नहीं होती । 
देशकाल अनुरूप कहन की कसावट पर खरी उतरती उपन्यास की कहानी मे कुछ भी अनावश्यक नहीं है । 
उपन्यास उस अनाज के जैसा है जिसकी छान - पटक अच्छे से की गयी हो । लगता है लेखक ने अपने लिखे हर  वाक्य को अपनी कसौटी पर कस कर, संतुष्ट  होकर ही कथा को आगे बढ़ाया है । 
किसी प्रकार की जल्दबाजी या लापरवाही मे लेखक नहीं दिखता । 
उपन्यास के पात्र आंचलिक भाषा ,बोली, कहावतों का ही प्रयोग करते हैं। जिससे उपन्यास में आने वाले घटनाक्रमों का चित्रण इतना सजीव बन पड़ा है कि पढ़ते पढ़ते पाठक उन दृश्यों को देखने लगता है । 
रामप्रसाद व कमला ( इनकी दरिद्रता का वर्णन इतना मार्मिक  है कि इन्हे नायक ,नायिका भी नहीं कहा जा रहा । ) जब भी एक साथ आते हैं तो , हर दृश्य आँखों के कौरों को भीगो जाता है ।
इस दम्पति के जीवन की मार्मिकता में छुपे प्रेम का जैसा वर्णन लेखक ने किया है , वो दुर्लभ है । 
आंचलिक भाषा के शब्द कहानी में बहुत सहजता से आते हैं, कंही भी वो जबरदस्ती ढूंसे नहीं गए हैं । भाषा शैली का चातुर्य स्पष्ट झलकता है । 
दोनो परिवेशों मे घटित घटनाओं का वर्णन निरा काल्पनिक नही लगता। लेखक ने आँकड़ो के साथ बहुत सरल भाषा मे अपनी बात रखी है, जिससे पाठक को ज़रा भी परेशानी नही होती तथ्यों को समझने में।
जीती- जागती रसीली भाषा के साथ जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, उतना ही पाठक उस मे डूबता जाता है। भाषा की एक ख़ासियत यह भी है कि वह क्लिष्ठ नही है। भारी - भरकम शब्दों का प्रयोग होने से कथा अपने देशकाल से तारत्म्य में नही रहती, लेकिन इस उपन्यास के जो पात्र जिस परिवेश से है वो वंही की आम बोल-चाल की भाषा तरीक़े व लहजे का इस्तेमाल करते हैं।
अपनी पत्नी के गहने बेचने के दृश्य में गहने के पिघलने व रामप्रसाद के मन मे चल रहे मंथन का दृश्य पाठक के ह्रदय को अंतरकोश तक झकझोरता है। 
एक बात तो निश्चित है लेखक ने ये उपन्यास केवल लिखने के लिए नही लिखा है। अवश्य ही इसके विषय से लेखक स्वयं भी आंदोलित रहा है। एक ज़िम्मेदार लेखक होने के नाते लेखक सामाजिक सरोकार रखता है,और उपन्यास लिख उसने अपने सामाजिक व लेखकीय दायित्व का निर्वहन किया है। 
लेखक ने अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी तन्मन्यता से निभाई है जिसमें वह सफल भी हुआ है। पाठक पूरी तरह से लेखक से जुड़ कर, घटनाक्रमों मे डूब कर लेखक के रचे संसार मे अनवरत विचरता है। 
लेखक बहुत प्रवीणता के साथ जंहा भारतीय किसान की दयनीय दशा का वर्णन करता है, उसी दक्षता के साथ वह हमारी प्रशासनिक व्यव्स्था की ख़ामियों पर भी रोशनी डालता है। 
प्रशासनिक कार्यो, दफ़्तरों जैसे नीरस विषय को भी लेखक ने अपने लेखकीय चातुर्य का प्रयोग कर, मुहावरों , कहावतों व भाषा की सहजता के साथ रोचक बना दिया है।
एक दृश्य --
" फागुन का महीना फ़सल के पकने के लिए ही होता है। हवा मे ऐसी खुनकी व मादकता आ जाती है कि फ़सल भी झूम कर पक जाती है।" ....
खुनकी जैसे शब्द का प्रयोग फागुन की महक पाठक तक पहुँचा देता है। 
यह तो महज़ एक वाक्य है ऐसे ही जीवंत दृश्य व शब्द पाठक को बाँधे रखते हैं। 
किस्सागौई का माहिर यूँ ही नही कहा जाता पंकज सुबीर को।
यह उपन्यास लिख लेखक ने तो अपने सामाजिक व नैतिक दायित्व को निभा दिया है। 
ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक यह पंहुचना चाहिए । 
विश्वविद्यालय के छात्रों के कोर्स मे रखने का अनुमोदन होना चाहिए। क्योंकि यह कृति हमारे देश के सबसे आवश्यक पर सब से ज़्यादा उपेक्षित व्यक्ति " किसान" के जीवन की कड़वी सच्चाइयों व कठिनाइयों से अवगत कराती है।
यह उपन्यास नवाजुद्दीन सिद्दीक़ी की एक्टिंग सा है । तारीफ़ करनी है तो ले आओ शब्द कंहा से लाओगे
और कमियाँ ढूँढनी है तो ढूँढ कर बताओ। बस एक ही शब्द मे सब निहित है। वाह।
           🍀पारूल🍀

पुस्तक -- अकाल में उत्सव  
लेखक -- पंकज सुबीर 
प्रकाशक --  शिवना प्रकाशन 
                   पी. सी. लैब, सम्राट कॉम्प्लेक्स बेसमेंट 
                    बस स्टैंड , सीहोर - 466001 (म. प्र.)
                     फ़ोन : 07562 - 405545, 0762 - 695918 
                     E-mail: shivna.prakashan@gmail.cm