Monday, October 30, 2017

रात

रात फ़कत रात नही हुआ करती
नशा होती है
और ये नशा मेरे सर चढ़ कर बोलता है
मुझे रात में बस एक ही बात पसंद नही
और वो है,सोना
किसी के लिए रात
आबिदा परवीन है
किसी के लिए मेहदी हसन
तो किसी के लिए जगजीत सिंह
मेरे नजदीक रात है
लग जा गले के फिर ये हसीं रात हो ना हो..
रात उडती हुई बदली है एक
जो ऊंचा उड़ा ले जाती है
किसी के लिए ये बदली 
सिगरेट के धुएं से बनती है। तो 
किसी के लिए स्कॉच या व्हिस्की से
किसी के लिए कॉफी के झाग से
मेरे नजदीक ये बदली चाय से उठने वाली भाप है
किसी के लिए रात, रात की रानी होती है
किसी के लिए गमकता फूटता महुआ 
किसी के लिए हार-सिंगार होती है,तो
किसी के लिए रात चम्पा हुआ करती है
मेरे नजदीक रात रजनीगंधा है
रात, रात नही
यादों का मुशायरा होती है
रात में तसव्वुर की बज़्म सजती है
एक के बाद एक यादों की ग़ज़ले पढी जाती है
रात बैतबाजी होती है जिसमे
बहके हुए दिल को 
खुद ही जवाब दे देकर
समझाते हैं।
कहने को तो रात मौसम के हिसाब
से छोटी बड़ी होती हैं।
पर हिज्र की रातें
सबसे लम्बी रातें होती हैं।
रात के दामन में खुद को ढूंढना 
सबसे आसान तरीका है खुद से मिलने की।
🍀पारूल सिंह 🍀
 

Monday, October 23, 2017

आवश्यकता निमित एक देह मात्र मै

आवश्यकता निमित एक देह मात्र मै 
....
 ....
 इसके आगे लिख नहीं पाती
  जब जब भी
 अंतर्मन में भावो का बवंडर उठता है 
इतना तेज होता है कि
 शब्दों के सांचो मे
 भाव टिक ही नहीं पाते 
भाव ममता , स्नेह और प्यार के
 जिन पर अपने व्यर्थ होने का भाव भारी है
 अंतर्मन में
 मेरे "भाव" "शब्द" और "मै" 
हम तीनो ही प्रसव पीड़ा से गुजरते है
 पर कविता कागज पर नहीं आ पाती
 देर सवेर इस  पीड़ा से गुजर
 हर कविता अंतर्द्वंद  जीत जाती है 
किन्तु मेरी इस  कविता की किस्मत मे
 केवल प्रसव पीड़ा है
 ये  आकर रूप नहीं ले पाएगी 
ये आज भी मेरे साथ है
 "मै" ,मेरे "भाव" और "शब्द" 
हम तीनो  ही
 आज फिर इस प्रसव पीड़ा से गुजरे हैं 
 इसी पीड़ा मे  बुदबुदाती रही हूँ  
आवश्यकता निमित एक देह मात्र मै
 ....
......
इसके आगे आज भी नहीं लिख  पाई .....
पारूल सिंह

Monday, September 18, 2017

तिलिस्म

कभी-कभी ऐसे बात करते हो
के एक दम रूहानी सा
तिलिस्म बिछ़ा देते हो
 मुझ से तुम तक।
कुछ भी दरमिया नही।
मीलों की दूरी नही,हवा नही,
दरख्त,दरिया कुछ भी तो नही।
बस करोड़ों ध्वल रोशनी-पुजँ।
इधर मैं उधर तुम,
ना कोई लफ्ज़ ना आवाज।
बस दो जोड़े मुस्कुराती आँखें
एक दूसरे से जुड़ी हुई,
" मैं यहाँ हूँ"
 "हाँ तुम हो"
 "मैं यहाँ हूँ"
 "हाँ तुम हो"
 "मैं हूँ"
 "जानती हूँ"।
पारूल सिंह

Thursday, September 14, 2017

विश्वास


यार ये आधा,पौना,तिहाई,चौथाई क्या होता है? विश्वास है तो है,नही है तो नही है। सूद थोड़े है जो सौ का तीस हर महीने बढ़े ही बढ़े। किसी पर विश्वास हो गया तो हो गया। दिन में पचास बार क्या तोलना कि विश्वास लायक है कि ना है। ये बात हो गई तो विश्वास बढ़ गया,वो बात कह दी तो कम हो गया। पहले विश्वास पकाओगे,फिर भरोसा लाओगे।तब कहीं जा कर कारज पूरा होगा। इतने सालों में तो दो चार विश्वास टूट जाएं और दो चार खरे लोग मिल जाएं वो अच्छा है। सालों तक एक बन्दे पर विश्वास को तोलो मोलो फिर वो भी धोखा निकला तो गई भैंस पानी में। मुझे तो सीधा सा फण्डा ये समझ आया कि ज़िन्दगी में जिस के लिए जो गट फिलिंग आए,उसे बेस बना लो और कर लो विश्वास या नकार दो सिरे से। इसमे दो ही बाते होंगी, या तो वो भरोसा करना सही होगा,एक काम पूरा होगा।एक अच्छा रिश्ता या कुछ भी जो अपेक्षित हो वो मिलेगा। या फिर भरोसा टूट जाएगा।तो क्या गम, तजुर्बा तो मिला।ये तजुर्बा अगली गट फीलिंग का बेस बनेगा।और साथ में ये भावना रहेगी कि मैं तो अपनी तरफ से सच्चा था।ईमान से तो सामने वाला गया। और कई बार तो मैंने देखा है कि आपके अटल विश्वास के चलते हेरा फेरी करने वाला भी आपसे धोखा नही कर पाता।
सो विश्वास या तो हो पूरा पूरा या बिल्कुल ना हो। ठीक है मान लिया आजकल इंटरनेट के युग में जानकारियों की अधिकता है।पर जानकारी ज्यादा हो और कच्ची पक्की हो तो बहुत ही खतरनाक है। लोग गूगल पर पढ़ पढ़ कर चीजों की इतनी जांच पड़ताल करते हैं इतनी जिरह करते हैं कि पूछो मत। लोग डॉक्टर को विजिट करते हैं तो समझ नही आता ये डॉक्टर को दिखाने आए हैं या बेचारे डॉक्टर का आज पैनल इन्सपेक्शन  है। नेट पर मेडिकल रिलेटिड आपकी जानकारी का डॉक्टर की नॉलिज, प्रैक्टिकल नॉलिज व प्रैक्टिस नॉलिज से क्या मुकाबला? प्रमाणिकता ही क्या आपकी जानकारी की ? जिसका जो काम है वो उसे करने दीजिये। विश्वास करना सीखिये लोगो पर। और आप को क्या लगता है डॉक्टर को समझ नही आता ये सब ?आता है? सुबह से शाम तक आप से हजारों से मिलते हैं वो। पर बीमार के मनोस्थिति समझते हुए वो समझाने की कोशिश करता है,इग्नोर करता है या झल्ला भी सकता है। खूब रखिये जानकारी, पर  जहां दूसरे के दिमाग से काम चले वहां अपना लगाना ही क्यूँ?  कर लीजिए एक बार प्रॉडक्ट व मेडिकल सर्फिंग। पर एक बार जहां जम गए,जमे तो रहिए। ठीक है अपवाद हर जगह हैं पर।विश्वास कीजिए।निश्चित हो रहिये।एक ही इन्सान हर फ़न में माहिर नही हो सकता। सुकून के लिए तो ये ही करना सही है। ऐसा भी नही कि मैंने ये ऊपर लिखी गलतियाँ ना की हों। कुछ तो की है तभी तो लिख रही हूँ। पर जादू करता है,हवा से हल्का बना देता है सहज विश्वास। विश्वास से ही चमत्कार होते हैं और चमत्कार उन्हीं के साथ होते हैं जो इन में विश्वास करते हैं। वो अल्लमा इकबाल का शेर है ना--
अच्छा है दिल के पास रहे पासबान-ए-अक्ल 
लेकिन कभी कभी इसे तन्हा भी छोड़िये।
पारूल सिंह 

Saturday, September 9, 2017

प्रेम गली अति सांकरी

प्रेम वही है जिसमें सम्पूर्ण समर्पण हो पर स्वाभिमान के साथ। प्रियतम भी वही है जिसे संपूर्ण समर्पण तुम्हारे स्वाभिमान के साथ स्वीकार्य है।जो तुम्हारे सम्पूर्ण समर्पण के साथ तुम्हारे स्वाभिमान के लिए भी सजग हो। प्रेम को समझना है तो सम्पूर्ण समर्पण व स्वाभिमान के मध्य की महीन रेखा को समझना होगा। अहम या मैं व स्वाभिमान के अन्तर को समझना होगा। जिस तरह तुम्हें रीढ़विहीन प्रेमी नहीं चाहिए उसी तरह प्रियतम को भी रीढ़विहीन प्रेमिका पसंद नहीं है। जो तुमसे स्वाभिमान त्यागने की इच्छा करे वह प्रेम नही। और स्वाभिमान त्यागने की प्रवृत्ति तुम में है तो तुम गुलामी में हो प्रेम में नही। प्रेम आजादी देता है गुलामी कदापि नही। जीवन में जब भी घुटन जान पड़े तो समझो किसी वस्तु,आदत,स्थान,व्यवस्था या व्यक्ति की गुलामी में हो। जब सारा खुला आकाश,धरती व छितिज उड़ने,कुलाचे भरने, खुली वायु में स्वास लेने को तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो तो समझ जाओ तुम प्रेम में हो।
पारूल 🙂

Monday, September 4, 2017

वो ये इश़्क़ ही है


दिन के जाते जाते 
बेचारे सूरज की मटकी 
फूट ही गई 
उतरते उतरते शाम की सीढ़ियाँ।
बादलों ने दोनों हाथों से 
समेटा तो बहुत आंचल में 
सूरज का पिघला सोना।
और लपेट लिपटा कर 
सूरज को किया विदा।
बादल तो डबल ड्यूटी
पर हैं आज।
रात भर बरसेंगे।
हाथ पैर झाड़ कर
जब बादल चले 
वापस अपनी-अपनी
पॉजिशन लेने।
 नाज़ुक सी बूँद सोने की।
झूम के चूम रही थी एक सांवरे से
बादल की पेशानी बार बार।
लिपटी रह गई थी बादल की लट में वो।
बादल हैरान बोला," पगली
गई क्यूँ नही। हम तो बरस रहेंगे
कुछ लम्हों में।
तो अकेली आसमान में कैसे टिकी रहेगी?"
"तो चलो मुझे भी साथ लेकर धरती पर।"
बूँद ने इठला कर कहा।
"बावली, यूँ नही जाता कोई आसमान से धरती पर
पिघल जाना पड़ता है।
नाम,तासीर सब बदल जाता है ।
रात में तो सूरज की रोशनी भी चाँदनी
बन कर बिखरती है ।
चाँद की सारी चाहत ओस बनकर
चूमती है हर ज़र्रे को।"
तो मुझे बादल बना लो मैं भी तुम्हारे
साथ बरसूंगी।
उसके लिए तो पहले मुझे जलना होगा
तुम्हारी आग में।"
"नही नही मैं ये ना कर सकूंगी
प्यार है दुश्मनी नही।"
"बावली,प्यार का निभाना इश़्क़ है।
एक हो जाना इश़्क़ है।
मैं का मिटाना इश़्क़ है।
बूँद का ताप और बादल
पिघल कर  बने पानी
और चल दिया ये इश़्क़ गाता
मुस्कुराता धरती की और।
चाँदनी रात में देखा है कभी
हँसती,इठलाती,जल्दबाज।
जो पहली बूँदें झमाझम
आकर चूमती हैं धरती को
वो ये इश़्क़ ही है।
वो ये इश़्क़ ही है ।
पारूल सिंह




 


सतरंगी छ़ाता


 आज मुझे अपने facebook पेज के लिए एक पोस्ट लिखनी थी मैं कल से ही लिखने में लेट हो जा रही थी कभी किसी वजह से कभी किसी वजह से कई बार टॉपिक को लेकर ही कंफ्यूज थी खैर लिखने बैठी तो   आदतन अपने कमरे की बालकनी से बाहर हो रही बारिश देखने लगी तभी मेरे सामने वाली बिल्डिंग की एक बालकनी में एक लड़की निकल कर आई। उसने दो तीन बार ऊपर आसमान को देखा और फिर दोनो हाथ आगे बालकनी से बाहर निकाल दिये शायद बारिश को महसूस कर रही थी। फिर झट से अंदर गई और रेनबो के सात रंगों का एक छाता लेकर आई।और छाते को ओढ़ ले कभी हटा दे,फिर थोड़ी देर भीगे फिर छाता सर पर तान ले कभी छाता रख दे और अपने बालों को लहरा कर बालकनी में घूमे तो कभी उछल उछल कर छपाक करे। मेरे चेहरे पर बरबस ही मुस्कान आ रही थी और मैं सब भूल कर उसे बारिश का लुत्फ उठाते देख रही थी। फिर उसने छाते को बालकनी से बाहर फैला दिया,हवा तेज थी,छाती पलट़ गया।जैसा की हम सब ने महसूस किया होगा ये तजुर्बा मुझे लगा अब ये छाता रख देगी,पर नही,उसने तो छाते को दोनो हाथों से फिरकी की तरह घुमाना शुरू कर दिया । छाता बहुत सुन्दर लग रहा था, छाते की सारी डंडिया सात रंगों के हाथ ऊपर उठाए गोल-गोल घूम कर नाच रही थी जैसे। घुमाते-घुमाते वो था तो को अपने सर पर ले गई हवा का दबाव दूसरी तरफ बना और छाया सीधा हो गया। लड़की को क्या करना है ये उसकी समझ में आ गया था। अब तो वो बार-बार छाते को बालकनी से बाहर निकाले,छाता पलट जाए।छाता पलटे तो उसे सर पर ले जाकर घुमाए, छाता फिर सीधा हो जाए। फिरकी की तरफ घूमना घुमाना चलता रहा उस लडकी,महिला या औरत का।वो काफी दूर थी तो ये मालूम होना मुश्किल था। और इस से कोई फर्क भी नही पड़ता कि वह किस उम्र की थी। फर्क पड़ता था तो इस बात से कि उसने अपने सतरंगी छाते को खुशी खुशी घुमा कर रख छोड़ा था। छाता उल्टा हो या सीधा। उसे दोनों हालात में छाता को घुमाने में आनंद आ रहा था। बल्कि इस छाते के खेल में उसे ज्यादा मजा तब आना शुरू हुआ जब छाता पलट कर उल्टा हो गया था। उस के बाद तो उसने छाते को फिरकी बना दिया। इसे कोई परवाह ही नही थी कि बाकी की दो हजार बाल्कनियों से कोई उसे देख रहा था या नही।  वो तो बस मग्न थी। वो उसका छाता और बारिश।मैनें देखा और किसी भी बालकनी में कोई नही था। क्या दो हजार लोगों में किसी के पास भी सतरंगी छाता नही था? है दोस्तों उन दो हजार के पास भी है और हम सब के पास भी है । हमारी ये ज़िन्दगी सतरंगी छाता ही तो है। बारिश इस छाते की उमर है। छाते का सीधा रहना इस ज़िन्दगी के सुख और उल्टा होना दुख। फिर हम क्यूँ नही घुमा घुमा कर मजे लेते इस ज़िन्दगी के? दुख हो के सुख ज़िन्दगी को फिरकी बना कर क्यूँ नही मजा लेते इसका? दोस्तों समझ रहें हैं ना! मजा फिरकी घुमाने में है। छाता उल्टा हो के सीधा। बल्कि छाता उल्टा हो यानि दुख में जब छाते को घुमाते है तो उसकी खूबसूरती और बढ़ जाती है। 

Monday, August 28, 2017

इसे कोई प्रॉब्लम है

इसे कोई प्रॉब्लम है

जब भी थाम के हाथ उसका जाती हूँ कंही
कई बार मुझसे पूछते है लोग, “इसे कोई प्रॉब्लम है “ ..
मैं जब भी रसोई मे खाना बनाती हूँ,
उस से छुप कर रसोई मे जाती हूँ |
वो पर आ ही जाती है वंहा पर,
मुझे घर में कंही और ना पाकर,
और लग जाती है, अपने नन्हे हाथों से रोटी बेलने |
 मुझसे पूछती है, ''माम् आप क्या कर रही हैं ?''
“खाना बना रही हूँ बेटा “
“मेरे लिए खाना बना रही है, थैंक यू माम्
बहुत अच्छा बना रही हो थैंक यू | “

खाते हुए  हर कौर के साथ
खाना बहुत अच्छा  बना है, वो मुझे ये बतलाती है |
मैंने कितने सालों खाना बनाया,
कभी ही घर मे कोई तारीफ करता हो |
कभी ही कोई समझता  हो,
कि मैंने ये खाना उनके लिए बनाया है |
कोई ड्यूटी नहीं निभायी |
पर वो मुझे अहसास कराती है,
कि उसे अहसास है, और वो शुक्रगुजार  है,
कि मैंने उसके लिए खाना बनाया |
ये अहसास होना, और मुझे भी ये अहसास करवाना,
कि वो समझती है मैंने ये उसके लिए किया है,
अगर प्रॉब्लम है,
तो होगी उसे कोई प्रॉब्लम |

घर मे किसी बीमार का होना तो बड़ी बात,
कोई आह भी करे तो वो दौड़ के पूछती है,
“की होया ?
तबियत सही नहीं है ?
बुखार है ? मै सर दबा दूँ ? “
और जब तक कोई हाँ ना का जवाब दे |
वो सर दबाना शुरू कर देती है |
वो दौड़ कर, अपना डॉक्टर प्ले सेट ले आती है |
और जाँच शुरू करती है |

 ये केयर प्रॉब्लम है ?
तो होगी उसे कोई प्रॉब्लम |

 किसी को रोते देखना तो दूर की बात,
 वो जरा सा रोने का मुहँ बनाने पर ही,
 अपने खिलोने देने को तैयार हो जाती है |
 वो किसी को डांट रही है,
 तो उसका उदास चेहरा देख कर,
खुद सॉरी बोलती है |
कोई उसे मारे या डांटे,
तो उसे पलट कर वो नहीं डांटने देती,
कि कंही उसे बुरा न लगे |
ये दिमाग के बजाये,
दिल से सोचना प्रॉब्लम है ?

तो होगी उसे कोई प्रॉब्लम |
पर आजकल माँ बाप की लाख कोशिशों पर भी,
बच्चे उन की नहीं सुनते |
महंगे से महंगे गिफ्ट भी,
उन्हें खुश नहीं करते |
प्यार कंहा  का ?
माँ बाप की भावनाए नहीं समझते बच्चे |
माँ बाप शादी के बाद बेटे, बहु को
मिलने वाली जायदाद में रूकावट के सिवा
और कुछ नहीं लगते |
उन्हें कोई प्रॉब्लम नहीं है?
अगर है तो, फिर इसकी प्रॉब्लम
उनसे  बहुत अच्छी है |
 मुझे ख़ुशी है कि,
 इसे कोई प्रॉब्लम है |
पारूल सिंह

Thursday, August 24, 2017

प्लेसिबो इफेक्ट

Placebo effect:
Placebo effect मूलतः एक प्रकार की झूठी दवाई से ईलाज करना है। मान लें कि एक मरीज को डॉक्टर कुछ शुगर टेब्लेटस दे दें ये कह कर कि इस से उसका बुखार उतर जाएगा,या कोई और बीमारी हो तो वो ठीक हो जाएगी। और उस दवाई को असली दवाई मान कर मरीज ले ले और वह ठीक हो जाता है। इसे प्लेसिबो ईफेक्ट कहते हैं।
प्लेसिबो इफेक्ट जाने या अनजाने रूप से किसी भी स्थिति को सच मान लेने से उसका सच में सच हो जाना है।
रिसर्चस से पता चला है कि कई बार कुछ अॉपरेशनस,सर्ज़री में भी प्लेसिबो ईफेक्ट के पॉजिटिव रिज्लटस मिले हैं। जैसे किसे व्यक्ति को केवल चीरा दे कर टांके लगा दिये जाएं और उसे कह दें कि आपके अमुक अंग की सर्जरी कर दी गई है। व मरीज को उस सर्जरी से वो ही रिजल्ट मिल जाते हैं जो उसे असली सर्जरी से मिलने वाले थे।
बेसिक्ली ये व्यक्ति के दिमाग व शरीर के सम्बन्ध पर निर्भर है। ये मुख्यतः निम्न रोगों में कारगार है।
दर्द
डिप्रेशन
अनिद्रा
एनजाइटी
कईं बार मरीज को पता होते हुए भी ये प्लेसिबो पद्धति कार्य करती है। यह मुख्यतः उम्मीद पर निर्भर है जिस व्यक्ति को आसानी से उम्मीद व विश्वास करने की आदत हो उन पर ही यह ज्यादा कारगार होती है।
मेडिसिन प्रैक्टिस में इसे मान्यता नही है,क्योंकि मानना है कि यह डॉक्टर व मरीज के विश्वासी सम्बन्ध के लिए सही नही है।
कईं बार प्लेसिबो के कार्य करने का एक पहलू यह भी है कि जिस दवाई के स्थान पर यह दी जाती है उससे होने वाले साइड इफेक्टस भी मरीज मे पाए जाते हैं।
प्लेसिबो की तरह ही नोसिबो प्रभाव भी होता है।
प्लेसिबो व नोसिबो इफेक्टस को अब सेल्फ हेल्प व सॉइक्लजी में भी प्रयोग किया जाने लगा है।
जैसे यदि हम मान लें व महसूस करने लगे कि कोई कार्य विशेष हम कर सकते हैं तो अपनी फिजिक्ल लिमिटेशंस के होते हुए भी हम वो कार्य कर पाते हैं।
मरीज स्वयं यह विचार करे कि वो ठीक हो रहा है तो वो ठीक हो जाता है।
अपनी ज़िन्दगी में भी अगर हम ये मान लें कि चाहे जो हो मैं तो खुश रहूंगा परेशानियां मुझे परेशान नही कर सकती तो ऐसा ही होने लगता है धीरे धीरे।
पारूल

Monday, August 21, 2017

ये पास वाले मोड़ से पहले सड़क किनारे 
चुपचाप ठुंठ खडे पेड़ के अन्तर्मन में 
बड़ी चहल पहल है आजकल।
चुपचाप इसलिए क्योंकि शोर मचाने को 
उसके पास कुछ नहीं 
ना टहनी ना पत्ते
वरना पेड़ कभी चुप नहीं रहते 
हवा के साथ जबरदस्त रोमांस 
चलता है उन का।

हवा के इशारों पर झूम कर
नाच-नाच कर
झूनन-झूनन की आवाजें करना 
और टहनियां फैला-फैला कर 
पत्तियों को झटकना।
हवा कम हो के ज्यादा 
दिन में जागते और 
रात को सोते हुए 
ये ही काम उनका।

झूनन-झूनन झूनन

सड़क किनारे के पेड़ों को 
एक और सुविधा रहती है 
ना हो हवा तो आते जाते वाहन 
उन्हें कान पकड़ इधर से उधर तक 
खींचें चले जाते हैं 
अपनी गति की हवा से 
झूनन-झूनन झूनन

हाँ तो उस चुपचाप खड़े पेड़ के 
अन्तर्मन में बड़ी चहल पहल है 

पास के जल संस्थान का पानी 
जब ओवर फ्लो होता तो नाले से
सड़क पर फैल जाता 
ना नाले का पानी कम था, ना बरसात का।

जाने किस की नज़र लगी थी कभी उसे
और अब ना जाने कौन गली की हवा 
किस तरह उसका शरीर छू गई कि 

उस ठूंठ पेड़ के सीधे सपाट तनों में 
कुछ कौंपले फूटने लगी हैं 
इधर उधर फैलीं गिनती भर की 
शाखाओं में भी कहीं-कहीं 
गोल-गोल गांठो को हरी-हरी
नौकों से फोड़,कुछ कौंपले
झांकने लगी हैं।
आँखें झपका-झपका  उचक कर
विस्मित सी देख रही हैं 
नई दुनिया को 

बड़ी सुगबुगाहट है पेड़ के अन्दर 
वो कुछ और तन कर खड़ा हो गया है।
अब तक तो 
यहाँ खड़े-खड़े अनमना,भावहीन 
आते जातो को देखता था वो 
आखों से ही उन्हें 
सड़क के एक किनारे से दूसरे तक छोड़ता,
ऊंघता रहता 
अपने हालातों से समझौता कर चुका था 
पर इन हरी कौंपलों ने तो
उसके दिन फेर दिये।
वो अब अपने आसपास के 
उन पेड़ों में जो शामिल होने जा रहा है 
जो अपनी पत्तियों और टहनियों को
हवा में लहरा कर झूमते हैं 
झूनन-झूनन झूनन


जिन्हें देख कर उसके मन में कोई भाव ही 
ना आते थे 
बस वो अपने ही खोल में ऊंघता रहता था 
पर अब वो भी उनके जैसा 
फलों-फूलों टाईप होने जा रहा है 
तो इस फलने-फूलने के भाव को
समझ पा रहा है।
ये भाव उसे आनन्दित कर रहे हैं
उसके भी झूमने के दिन आने वाले हैं 
झूनन-झूनन झूनन
वो पूरे जोग से अपनी कौंपले समेटे
अभी से झूम रहा है 
झूनन-झूनन झूनन
पारूल

Tuesday, July 25, 2017

#आजादीबनामआराम1 देक्खो आजादी चाहने वाली बहनों आजादी तो मर्दो को भी चाहिए, सुबह काम पर  जाना और शाम को लौटना फिर घर बाहर के भी सौ काम। यानि के आजादी तो उनके पास भी नही,तो जो खुद आजाद नही वो तुम्हें क्या आजादी देगा? सो ये तो क्लियर हुआ कि आजादी उससे नही माँगनी। दूसरी बात आजादी फ्री नही मिलती इस दुनिया में कुछ भी फ्री नही। कुछ तो दांव पर लगाना होगा। और चलो तुमने कुछ दांव पर लगा भी दिया और ना आजादी मिली ना वो वापस मिला जो दांव पर लगाया था तो? माया मिली ना राम बनाओगी क्या अपनी ज़िन्दगी को? पहले बेस तैयार करो। अपने कम्फर्ट जॉन से निकलना होगा। अपने फैसले खुद लोगी तो परिणाम भुगतने को तैयार रहना होगा। सो तन मन और बहुत खास चीज धन से तैयार होकर ही कदम उठाना चाहिये।
बहुत आसान है विक्टम बन कर रहना।बहुत आसान है कहना ये करने नही देते,ये मना करते हैं,सास इजाजत नही देती,ये सब कह कर विक्टम बन लो बेचारी बन लो और घर रसोई निपटा कर खरांटे मार के सो जाओ। के जी हमारे साथ जो हुआ वो हमने तो किया ही नही।हम बेचारी।
कहीं ऐसा तो नही के सास नौकरी पर जाने की इजाजत दे दे और तुम सुबह से शाम अॉफिस और घर के काम कर याद करो कि 11 बजे काम निपटा कर 2 घंटे की नींद भी ले लेती थी,ये क्या झगड़ा मोल ले लिया।
सो पहले बैठो,सोचो ठंड़े दिमाग से कि क्या तुम्हें सचमुच कोई आजादी चाहिए भी। या जो है जैसे है सब तुम्हारे मन मुताबिक है।
तुम वो एक्सट्रा एफर्ट कर के कुछ एक्सट्रा पानी भी चाहती हो या नही।
ये ही बात समाज के स्तर पर अधिकार, हक नारी विमर्श,स्त्री विमर्श पर लागू है। जो समाज खुद चार लोगों से डरा रहता है जिसका मूल वाक्य और डर  ही ,"लोग क्या कहेंगे" है। वो तुम्हें क्या हक देगा। मांगना नही हक को ओढ़ना पहनना होगा...... क्रमशः
बाकी कल। मेरा भी डिनर का वक्त हो गया।  ग्यान बाँटने के अलावा घर के काम भी करने होते है मुझे :-)
पारूल सिंह