Monday, September 18, 2017

तिलिस्म

कभी-कभी ऐसे बात करते हो
के एक दम रूहानी सा
तिलिस्म बिछ़ा देते हो
 मुझ से तुम तक।
कुछ भी दरमिया नही।
मीलों की दूरी नही,हवा नही,
दरख्त,दरिया कुछ भी तो नही।
बस करोड़ों ध्वल रोशनी-पुजँ।
इधर मैं उधर तुम,
ना कोई लफ्ज़ ना आवाज।
बस दो जोड़े मुस्कुराती आँखें
एक दूसरे से जुड़ी हुई,
" मैं यहाँ हूँ"
 "हाँ तुम हो"
 "मैं यहाँ हूँ"
 "हाँ तुम हो"
 "मैं हूँ"
 "जानती हूँ"।
पारूल सिंह

Thursday, September 14, 2017

विश्वास


यार ये आधा,पौना,तिहाई,चौथाई क्या होता है? विश्वास है तो है,नही है तो नही है। सूद थोड़े है जो सौ का तीस हर महीने बढ़े ही बढ़े। किसी पर विश्वास हो गया तो हो गया। दिन में पचास बार क्या तोलना कि विश्वास लायक है कि ना है। ये बात हो गई तो विश्वास बढ़ गया,वो बात कह दी तो कम हो गया। पहले विश्वास पकाओगे,फिर भरोसा लाओगे।तब कहीं जा कर कारज पूरा होगा। इतने सालों में तो दो चार विश्वास टूट जाएं और दो चार खरे लोग मिल जाएं वो अच्छा है। सालों तक एक बन्दे पर विश्वास को तोलो मोलो फिर वो भी धोखा निकला तो गई भैंस पानी में। मुझे तो सीधा सा फण्डा ये समझ आया कि ज़िन्दगी में जिस के लिए जो गट फिलिंग आए,उसे बेस बना लो और कर लो विश्वास या नकार दो सिरे से। इसमे दो ही बाते होंगी, या तो वो भरोसा करना सही होगा,एक काम पूरा होगा।एक अच्छा रिश्ता या कुछ भी जो अपेक्षित हो वो मिलेगा। या फिर भरोसा टूट जाएगा।तो क्या गम, तजुर्बा तो मिला।ये तजुर्बा अगली गट फीलिंग का बेस बनेगा।और साथ में ये भावना रहेगी कि मैं तो अपनी तरफ से सच्चा था।ईमान से तो सामने वाला गया। और कई बार तो मैंने देखा है कि आपके अटल विश्वास के चलते हेरा फेरी करने वाला भी आपसे धोखा नही कर पाता।
सो विश्वास या तो हो पूरा पूरा या बिल्कुल ना हो। ठीक है मान लिया आजकल इंटरनेट के युग में जानकारियों की अधिकता है।पर जानकारी ज्यादा हो और कच्ची पक्की हो तो बहुत ही खतरनाक है। लोग गूगल पर पढ़ पढ़ कर चीजों की इतनी जांच पड़ताल करते हैं इतनी जिरह करते हैं कि पूछो मत। लोग डॉक्टर को विजिट करते हैं तो समझ नही आता ये डॉक्टर को दिखाने आए हैं या बेचारे डॉक्टर का आज पैनल इन्सपेक्शन  है। नेट पर मेडिकल रिलेटिड आपकी जानकारी का डॉक्टर की नॉलिज, प्रैक्टिकल नॉलिज व प्रैक्टिस नॉलिज से क्या मुकाबला? प्रमाणिकता ही क्या आपकी जानकारी की ? जिसका जो काम है वो उसे करने दीजिये। विश्वास करना सीखिये लोगो पर। और आप को क्या लगता है डॉक्टर को समझ नही आता ये सब ?आता है? सुबह से शाम तक आप से हजारों से मिलते हैं वो। पर बीमार के मनोस्थिति समझते हुए वो समझाने की कोशिश करता है,इग्नोर करता है या झल्ला भी सकता है। खूब रखिये जानकारी, पर  जहां दूसरे के दिमाग से काम चले वहां अपना लगाना ही क्यूँ?  कर लीजिए एक बार प्रॉडक्ट व मेडिकल सर्फिंग। पर एक बार जहां जम गए,जमे तो रहिए। ठीक है अपवाद हर जगह हैं पर।विश्वास कीजिए।निश्चित हो रहिये।एक ही इन्सान हर फ़न में माहिर नही हो सकता। सुकून के लिए तो ये ही करना सही है। ऐसा भी नही कि मैंने ये ऊपर लिखी गलतियाँ ना की हों। कुछ तो की है तभी तो लिख रही हूँ। पर जादू करता है,हवा से हल्का बना देता है सहज विश्वास। विश्वास से ही चमत्कार होते हैं और चमत्कार उन्हीं के साथ होते हैं जो इन में विश्वास करते हैं। वो अल्लमा इकबाल का शेर है ना--
अच्छा है दिल के पास रहे पासबान-ए-अक्ल 
लेकिन कभी कभी इसे तन्हा भी छोड़िये।
पारूल सिंह 

Saturday, September 9, 2017

प्रेम गली अति सांकरी

प्रेम वही है जिसमें सम्पूर्ण समर्पण हो पर स्वाभिमान के साथ। प्रियतम भी वही है जिसे संपूर्ण समर्पण तुम्हारे स्वाभिमान के साथ स्वीकार्य है।जो तुम्हारे सम्पूर्ण समर्पण के साथ तुम्हारे स्वाभिमान के लिए भी सजग हो। प्रेम को समझना है तो सम्पूर्ण समर्पण व स्वाभिमान के मध्य की महीन रेखा को समझना होगा। अहम या मैं व स्वाभिमान के अन्तर को समझना होगा। जिस तरह तुम्हें रीढ़विहीन प्रेमी नहीं चाहिए उसी तरह प्रियतम को भी रीढ़विहीन प्रेमिका पसंद नहीं है। जो तुमसे स्वाभिमान त्यागने की इच्छा करे वह प्रेम नही। और स्वाभिमान त्यागने की प्रवृत्ति तुम में है तो तुम गुलामी में हो प्रेम में नही। प्रेम आजादी देता है गुलामी कदापि नही। जीवन में जब भी घुटन जान पड़े तो समझो किसी वस्तु,आदत,स्थान,व्यवस्था या व्यक्ति की गुलामी में हो। जब सारा खुला आकाश,धरती व छितिज उड़ने,कुलाचे भरने, खुली वायु में स्वास लेने को तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो तो समझ जाओ तुम प्रेम में हो।
पारूल 🙂

Monday, September 4, 2017

वो ये इश़्क़ ही है


दिन के जाते जाते 
बेचारे सूरज की मटकी 
फूट ही गई 
उतरते उतरते शाम की सीढ़ियाँ।
बादलों ने दोनों हाथों से 
समेटा तो बहुत आंचल में 
सूरज का पिघला सोना।
और लपेट लिपटा कर 
सूरज को किया विदा।
बादल तो डबल ड्यूटी
पर हैं आज।
रात भर बरसेंगे।
हाथ पैर झाड़ कर
जब बादल चले 
वापस अपनी-अपनी
पॉजिशन लेने।
 नाज़ुक सी बूँद सोने की।
झूम के चूम रही थी एक सांवरे से
बादल की पेशानी बार बार।
लिपटी रह गई थी बादल की लट में वो।
बादल हैरान बोला," पगली
गई क्यूँ नही। हम तो बरस रहेंगे
कुछ लम्हों में।
तो अकेली आसमान में कैसे टिकी रहेगी?"
"तो चलो मुझे भी साथ लेकर धरती पर।"
बूँद ने इठला कर कहा।
"बावली, यूँ नही जाता कोई आसमान से धरती पर
पिघल जाना पड़ता है।
नाम,तासीर सब बदल जाता है ।
रात में तो सूरज की रोशनी भी चाँदनी
बन कर बिखरती है ।
चाँद की सारी चाहत ओस बनकर
चूमती है हर ज़र्रे को।"
तो मुझे बादल बना लो मैं भी तुम्हारे
साथ बरसूंगी।
उसके लिए तो पहले मुझे जलना होगा
तुम्हारी आग में।"
"नही नही मैं ये ना कर सकूंगी
प्यार है दुश्मनी नही।"
"बावली,प्यार का निभाना इश़्क़ है।
एक हो जाना इश़्क़ है।
मैं का मिटाना इश़्क़ है।
बूँद का ताप और बादल
पिघल कर  बने पानी
और चल दिया ये इश़्क़ गाता
मुस्कुराता धरती की और।
चाँदनी रात में देखा है कभी
हँसती,इठलाती,जल्दबाज।
जो पहली बूँदें झमाझम
आकर चूमती हैं धरती को
वो ये इश़्क़ ही है।
वो ये इश़्क़ ही है ।
पारूल सिंह




 


सतरंगी छ़ाता


 आज मुझे अपने facebook पेज के लिए एक पोस्ट लिखनी थी मैं कल से ही लिखने में लेट हो जा रही थी कभी किसी वजह से कभी किसी वजह से कई बार टॉपिक को लेकर ही कंफ्यूज थी खैर लिखने बैठी तो   आदतन अपने कमरे की बालकनी से बाहर हो रही बारिश देखने लगी तभी मेरे सामने वाली बिल्डिंग की एक बालकनी में एक लड़की निकल कर आई। उसने दो तीन बार ऊपर आसमान को देखा और फिर दोनो हाथ आगे बालकनी से बाहर निकाल दिये शायद बारिश को महसूस कर रही थी। फिर झट से अंदर गई और रेनबो के सात रंगों का एक छाता लेकर आई।और छाते को ओढ़ ले कभी हटा दे,फिर थोड़ी देर भीगे फिर छाता सर पर तान ले कभी छाता रख दे और अपने बालों को लहरा कर बालकनी में घूमे तो कभी उछल उछल कर छपाक करे। मेरे चेहरे पर बरबस ही मुस्कान आ रही थी और मैं सब भूल कर उसे बारिश का लुत्फ उठाते देख रही थी। फिर उसने छाते को बालकनी से बाहर फैला दिया,हवा तेज थी,छाती पलट़ गया।जैसा की हम सब ने महसूस किया होगा ये तजुर्बा मुझे लगा अब ये छाता रख देगी,पर नही,उसने तो छाते को दोनो हाथों से फिरकी की तरह घुमाना शुरू कर दिया । छाता बहुत सुन्दर लग रहा था, छाते की सारी डंडिया सात रंगों के हाथ ऊपर उठाए गोल-गोल घूम कर नाच रही थी जैसे। घुमाते-घुमाते वो था तो को अपने सर पर ले गई हवा का दबाव दूसरी तरफ बना और छाया सीधा हो गया। लड़की को क्या करना है ये उसकी समझ में आ गया था। अब तो वो बार-बार छाते को बालकनी से बाहर निकाले,छाता पलट जाए।छाता पलटे तो उसे सर पर ले जाकर घुमाए, छाता फिर सीधा हो जाए। फिरकी की तरफ घूमना घुमाना चलता रहा उस लडकी,महिला या औरत का।वो काफी दूर थी तो ये मालूम होना मुश्किल था। और इस से कोई फर्क भी नही पड़ता कि वह किस उम्र की थी। फर्क पड़ता था तो इस बात से कि उसने अपने सतरंगी छाते को खुशी खुशी घुमा कर रख छोड़ा था। छाता उल्टा हो या सीधा। उसे दोनों हालात में छाता को घुमाने में आनंद आ रहा था। बल्कि इस छाते के खेल में उसे ज्यादा मजा तब आना शुरू हुआ जब छाता पलट कर उल्टा हो गया था। उस के बाद तो उसने छाते को फिरकी बना दिया। इसे कोई परवाह ही नही थी कि बाकी की दो हजार बाल्कनियों से कोई उसे देख रहा था या नही।  वो तो बस मग्न थी। वो उसका छाता और बारिश।मैनें देखा और किसी भी बालकनी में कोई नही था। क्या दो हजार लोगों में किसी के पास भी सतरंगी छाता नही था? है दोस्तों उन दो हजार के पास भी है और हम सब के पास भी है । हमारी ये ज़िन्दगी सतरंगी छाता ही तो है। बारिश इस छाते की उमर है। छाते का सीधा रहना इस ज़िन्दगी के सुख और उल्टा होना दुख। फिर हम क्यूँ नही घुमा घुमा कर मजे लेते इस ज़िन्दगी के? दुख हो के सुख ज़िन्दगी को फिरकी बना कर क्यूँ नही मजा लेते इसका? दोस्तों समझ रहें हैं ना! मजा फिरकी घुमाने में है। छाता उल्टा हो के सीधा। बल्कि छाता उल्टा हो यानि दुख में जब छाते को घुमाते है तो उसकी खूबसूरती और बढ़ जाती है।