Monday, October 30, 2017

रात

रात फ़कत रात नही हुआ करती
नशा होती है
और ये नशा मेरे सर चढ़ कर बोलता है
मुझे रात में बस एक ही बात पसंद नही
और वो है,सोना
किसी के लिए रात
आबिदा परवीन है
किसी के लिए मेहदी हसन
तो किसी के लिए जगजीत सिंह
मेरे नजदीक रात है
लग जा गले के फिर ये हसीं रात हो ना हो..
रात उडती हुई बदली है एक
जो ऊंचा उड़ा ले जाती है
किसी के लिए ये बदली 
सिगरेट के धुएं से बनती है। तो 
किसी के लिए स्कॉच या व्हिस्की से
किसी के लिए कॉफी के झाग से
मेरे नजदीक ये बदली चाय से उठने वाली भाप है
किसी के लिए रात, रात की रानी होती है
किसी के लिए गमकता फूटता महुआ 
किसी के लिए हार-सिंगार होती है,तो
किसी के लिए रात चम्पा हुआ करती है
मेरे नजदीक रात रजनीगंधा है
रात, रात नही
यादों का मुशायरा होती है
रात में तसव्वुर की बज़्म सजती है
एक के बाद एक यादों की ग़ज़ले पढी जाती है
रात बैतबाजी होती है जिसमे
बहके हुए दिल को 
खुद ही जवाब दे देकर
समझाते हैं।
कहने को तो रात मौसम के हिसाब
से छोटी बड़ी होती हैं।
पर हिज्र की रातें
सबसे लम्बी रातें होती हैं।
रात के दामन में खुद को ढूंढना 
सबसे आसान तरीका है खुद से मिलने की।
🍀पारूल सिंह 🍀
 

Monday, October 23, 2017

आवश्यकता निमित एक देह मात्र मै

आवश्यकता निमित एक देह मात्र मै 
....
 ....
 इसके आगे लिख नहीं पाती
  जब जब भी
 अंतर्मन में भावो का बवंडर उठता है 
इतना तेज होता है कि
 शब्दों के सांचो मे
 भाव टिक ही नहीं पाते 
भाव ममता , स्नेह और प्यार के
 जिन पर अपने व्यर्थ होने का भाव भारी है
 अंतर्मन में
 मेरे "भाव" "शब्द" और "मै" 
हम तीनो ही प्रसव पीड़ा से गुजरते है
 पर कविता कागज पर नहीं आ पाती
 देर सवेर इस  पीड़ा से गुजर
 हर कविता अंतर्द्वंद  जीत जाती है 
किन्तु मेरी इस  कविता की किस्मत मे
 केवल प्रसव पीड़ा है
 ये  आकर रूप नहीं ले पाएगी 
ये आज भी मेरे साथ है
 "मै" ,मेरे "भाव" और "शब्द" 
हम तीनो  ही
 आज फिर इस प्रसव पीड़ा से गुजरे हैं 
 इसी पीड़ा मे  बुदबुदाती रही हूँ  
आवश्यकता निमित एक देह मात्र मै
 ....
......
इसके आगे आज भी नहीं लिख  पाई .....
पारूल सिंह